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Ek Pardah Jo UThaa.......


एक पर्दा जो उठा........
(ग़ज़ल संग्रह)












सरवर





















क्या किसी से कम है ’सरवर’ अपनी रुदाद-ए-अलम
बात ऎसी कौन सी है ’क़ैस’ और ‘ फ़रहाद’ में ?






’सरवर’ : एक तअस्सुर1

" अभी अगली शराफ़त के नमूने पाए जाते हैं "

यह एक मिसरा ही जनाब सरवर आलम राज़ ’सरवर’ की पुरवक़ार शख़्सियत2 की मुकम्मल तर्जुमानी करता है , ऐसा मेरा यक़ीन है।ग़ालिबन दिसम्बर 2004 की वो एक सर्द शाम थी जब जनाब ’सरवर’के एज़ाज़ में मुनक़िदा एक शे’री निशिस्त में मुझे ’सरवर’ से पहली मुलाक़ात का शरफ़ हासिल हुआ । मुझे यह सआदत बख़्शी गई कि मैं ही उनको शाल पेश कर के उनका ख़ैरमक़्दम करूँ । बादअज़ाँ तआर्रुफ़ से पता चला कि जनाब एक रिटायर्ड सिविल इन्जीनियर हैं।एक तअज्जुब हुआ। इन्जीनियरींग और शायरी दो मुतज़ाद सिन्फ़ें हैं। भला लोहे और पत्थरों से लोहा लेने वाले का शायरी से तआल्लुक़ ही क्या !फिर मालूम हुआ कि यह सिफ़त तो उनको विरासत में मिली है ।आप के वालिद-ए-माजिद जनाब ’राज़ चांद्पूरी ’साहब अपने ज़माने के उस्ताद शायरों में शुमार किए जाते थे।
महफ़िल-ए-समा में जब ’सरवर’ साहिब का कलाम सुना तो ऐसा महसूस हुआ कि एक मुद्दत के बाद किसी शायर को सुन रहा हूँ।तग़ज़्ज़ुल उनके कलाम में बिखरा हुआ था। सादा अल्फ़ाज़ में कहा गया कलाम,अन्दाज़-ए-बयां और बावक़ार शख़्सियत सभी सहर-आमेज़ थे।यह असर तो सिर्फ़ उस मुख़्तसर सी महफ़िल का था ।बादअज़ाँ महफ़िल उन्होंने अपने दो मज़्मूये इनायत फ़रमाये-"शहर-ए-निगार" और "रंग-ए-गुलनार"
यह थी ’सरवर’ से पहली मुलाक़ात के इब्तिदा।
जनाब आनन्द पाठक , सिविल इन्जीनियर होने के बावजूद अदब से गहरा लगाव रखते हैं, शे’र-ओ-शायरी के दिल-दाद: हैं।पाठक साहिब ने ’सरवर’ साहिब की कुछ चुनिन्दा ग़ज़लों का हिन्दी में शाया करने का इरादा किया है।मुझे हुक्म हुआ कि मैं ’सरवर’ के बारे में कुछ लिखूँ। अब आप ही बताएं मेरे जैसा आर्मी का एक रिटायर्ड मेजर फ़ौजी किसी इन्जीनियर शायर के बारे में क्या लिख सकता है। दोनों ही सिन्फ़ें शायरी के मुतज़ाद हैं ।बहरहाल ,हुक्म की तामील मुझ पर फ़र्ज़ हो जाती है।
’सरवर’ अब मेरे अज़ीज़ों की फ़ेहरिस्त में शामिल हैं। पहली मुलाक़ात में ,’सरवर’ को मुझ में जाने ऐसा क्या दिखा कि USA से अक्सर ही वो मुझ से बातें करते रहते हैं ।हमारी यह ग़ुफ़्तगू अज़ीज़ा ’क़ैसर राज़ी’(शरीक-ए-हयात सरवर )भी सुना करती हैं ।अज़ीज़ा को मेरी आवाज़ में जाने ऐसा क्या लगा कि बराहे-रास्त उनसे भी बातें होने लगी ।अब ’सरवर’ से कम ,’क़ैसर’ से ज़ियादा। होते होते क़ैसर ने मुझे भाई के पाक़ीज़ा रिश्ते में बाँध लिया। अब रिश्तों की क़ैद से क़ैसर मेरी बहन और ’सरवर’ मेरा बहनोई।किसी ने सच कहा है मुहब्बत के रिश्ते बाक़ी सब रिश्तों से बरतर होते हैं।अल्लाह त’आला यह रिश्ता ताअबद क़ायम रखे ।आमीन।
वाक़िया यह कि जनाब सरवर राज़ जहाँ एक मोअतबर शायर हैं वहीं उनकी शख़्सियत भी बड़ी पुरवक़ार और महबूब है. दराज़ कद ,गोरा चिट्टा चेहरा, उमर के तक़ाज़े के बावजूद मरदाना वज़ा (रोबिला चेहरा), फ़ौज़ियों के अन्दाज की मूछें ,एक इन्सान की हैसियत से वह शराफ़त और तहजीब का मुजस्सम और इसलाफ़ का नमूना हैं। उमर के इस पड़ाव (76 साल) पर भी करीबन निस्फ़ सदी से शे’र-ओ-सुख़न की मुसल्सल ख़िदमत में तन-मन-धन से मसरूफ़ हैं।गोया इन्जीनियरींग की जगह ख़िदमत-ए-अदब उनका पेशा बन गया।मैं दुआगो हूँ कि वो हमेशा सेहत ,मुसर्रत और कामयाबी से हमकिनार रहें और ख़िदमत-ए-अदब से हम सबको मुस्तफ़ीद करते रहें । आमीन।
वैसे तो मैं किसी शायर की शायरी पर तन्क़ीद का हामिल नहीं हूँ, फिर भी चन्द अल्फ़ाज़ इस मौज़ू पर रक़म कर रहा हूँ।इसे तन्क़ीद न समझा जाए। फ़क़त एक राय है।हर शायर अपना मिजाज़ रखता है।अपने इर्द-गिर्द माहौल से असरपज़ीर होता है और यही असर शे’र-ओ-शायरी की शकल में उभर कर आता है।चाहे वो कोई भी सिन्फ़-ए-सुख़न हो -ग़ज़ल,नज़्म हो ,हम्दीया,ना’तिया हो ,कसीदागोयी हो या रुबाई ।हमें पढ़्ना है और यह समझना है कि शायर हक़ीक़त में क्या कहना चाहता है।क्या पैग़ाम देना चाहता है।"सरवर" की शायरी बक़ौल-ए-ख़ुद रिवायती मिजाज़ का आईनादार है। वो नए तहज़ीब से गुरेज़ां है। ’सरवर’ मज़मून आफ़रीनी का नहीं ,अहसास आफ़रीनी का शायर है।ग़ज़ल ’सरवर’ की शायरी है ,वो ग़ज़ल के आहंग ,लासानी और शायरी निज़ाम से वाक़िफ़ कराती है और वो ग़ज़ल को हक़ीक़त के साथ पेश करता है।मेरी राय में शायरी और फ़लसफ़े में महसूस और मालूम का फ़र्क़ होता है।शायरी एक वज़्दानी कैफ़ियत है जो अपनी है ,ग़ैर की नहीं,जो एक शायर को अपने ग़म-ए-मोहब्बत ,ग़म-ए-रोज़गार और ग़म-ए-दुनिया से वाक़िफ़ कराता है और यही अहसास उसकी क़लम से अश’आर की शक्ल में उभर कर आता है।और यह सब ,अपने लहज़े की संजीदगी की बदौलत ’सरवर’ की शायरी में इन्फ़िरादी तौर पर नुमायां है ।
’सरवर’ साहिब की ग़ज़्लीयात में से दस-बीस अश’आर का इन्तिख़ाब कर के पेश करने की बजाय यह इज़हार कर देना मैं मुनासिब समझता हूँ कि ’सरवर’ साहब बहुत सोच समझ कर लिखते हैं।उनके कलाम में सुक़्म नहीं मिलता। ग़ज़ल का हर शे’र असरपज़ीर होता है।तग़ज्जुल इनके क़लाम में बिखरा हुआ है।वह अपने दिल की बात सादा अल्फ़ाज़ में कहते हैं। हुस्न की पाक़ीज़गी के वो कायल हैं।अगर मैं इसी तरह ’सरवर’ की शायरी की ख़ूबियाँ और ख़ामियाँ ही बयान करता रहूँ तो पूरी एक किताब मुरत्तिब हो सकती है।
अपनी गलतियों की माफ़ी चाहते हुए आख़िर में अपने मज़्मून को इस दुआ के साथ ख़त्म करता हूँ कि परम पिता परमेश्वर उनको सेहत और मुसर्रत से हमारे दर्मियान तादेर क़ायम रखे और उनका तख़लीक़ी अदब और शे’र-ओ-सुख़न का यह सिलसिला जारी रहे।

तेरे अख़्लाक-ए-तबीअत के परस्तार हैं हम
बर्फ़ के फूल सराबों में खिलाए रखना
और अन्त में
जहाँ मुश्किल पड़े ’जगदीश’ को तुम याद कर लेना
बड़ा है मेहरबां हर वक़्त सब के काम आता है
ख़ुदा हाफ़िज़।

-जगदीश चन्द्र जैन "जगदीश"
सम्पर्क Tel 011-26532428
H-10,Green Park (main) Mobile 09560693570
New Delhi 110016
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[ नोट --जगदीश चन्द्र जैन साहब(90 साल) भारतीय सेना के एक रिटायर्ड मेजर है और उर्दू के अदब आश्ना हैं
आप का जन्म 18-11-1921 में हुआ और आप की प्रारम्भिक शिक्षा F.C College लाहौर(पाकिस्तान) में हुई । बाद में आप ने हिन्दू कालेज दिल्ली से स्नातक कर भारतीय सेना में योगदान दिया।1939 में सेना में आप ने कमीशन प्राप्त किया और द्वितीय विश्व-युद्ध में भाग लिया । सेना में कई महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए 1948 में सेवा निवृत्ति ले लिया।

आप को बचपन से ही शायरी से गहरा लगाव रहा है और तख़ल्लुस ’जगदीश’ से शायरी करते हैं।आप ने कई बार बज़्म-ए-अदब भी आयोजित किया है ।उर्दू अन्जुमन और उर्दू की अदबी महफ़िलों में आप का नाम बड़े एज़ाज़-ओ-एहतराम से लिया जाता है ।आप दिल्ली और दिल्ली के बाहर के मुशायरों में शिरकत करते रहते हैं और आल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के अदबी प्रोग्रामों में प्राय: भाग लेते रहते हैं ।आप को दिल्ली और पंजाब के कई नामचीन शायरों जैसे.रिफ़त सरोश,शमीम करहानी,जावेद वशिष्ठ,सागर निज़ामी वग़ैरह शायरों के दोस्ताना सम्पर्क का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

वर्तमान में,आप दिल्ली में बस कर स्वतन्त्र साहित्यिक लेखन व उर्दू अदब के उत्थान व प्रचार व प्रसार में प्रयत्नशील हैं।आप ’सीनियर सिटीज़न एसोशियेशन (स्वैच्छिक संस्था) दिल्ली के सक्रिय सदस्य हैं और वृद्ध जनों की कल्याणकारी योजनाओं में सक्रिय भागीदारी निभाते हैं।आप फ़रमाते हैं ------

मैं न अन्दर से समन्दर हूँ ,न बाहर आसमां
बस मुझे इतना समझ जितना नज़र आता हूँ मैं

इस संग्रह की लिए ,मेरे अनुरोध पर ,आप ने यह विशेष लेख लिख कर मुझे अनुगृहित किया । सादर।
(आनन्द.पाठक)



पेश लफ़्ज़ : सरवर आलम राज़ - दुर्रे आबदार

किब्ला सरवर आलम राज़-"सरवर" साहिब कि नई पेशकश ' एक पर्दा जो उठा ' आपके हाथों में है .
इस कामयाब कोशिश का सेहरा जनाब आनंद पाठक के सर है जिन्हों ने अपनी मेहनत और लगन से उर्दू के बेमिसाल
सरमाया-ए-सुख़न से मोहतरिम जनाब सरवर आलम राज़ कि फ़नकारी के कुछ रौनक़फ़िशां नगीने आपके ज़ौक़-ए- तलब
की दिलचस्पी के लिए पेश किये हैं. ये काम उर्दू ज़बान से ना-आशना के लिए और भी दुश्वार होता है लेकिन अदब की तिशनगी
के मुक़ाबिल बह्र-.ए- बेकराँ भी कमज़र्फ़ साबित हुए हैं.
देखते ही देखते मस्ताना आधी पी गया
कोरा मिटटी का सिकोरा किस क़दर मैनोश है !
सरवर साहिब का नाम दुनिया-ए-उर्दू अदब में फ़ख़्र-ओ- एहतराम से लिया जाता है और इन की हस्ती दीगर मुमालिक में बतौर उस्ताद-ए- कामिल मक़्बूल है. बोहत से मुल्कों के मुशाइरों में आप की शिर्कत ने चार चाँद लगाए हैं और मद्दाहों की तवील फ़ेहरिस्त ने आप को रहनुमा क़बूल किया है. इंसानी जज़्बात की रग-ओ-पै में खुद को ढाल लेना, उनके रंज-ओ-ग़म, अंदोह-ओ-हिर्मां, दर्द, आज़ार इज़्तिराब की अक्कासी आपके मश्क़-ए-सुख़न की बुनियाद है.
दिल्ली और अमेरिका की दूरियों के बावजूद, ये मेरी ख़ुश क़िस्मती थी कि आप से मुलाक़ात का शरफ़ हासिल हुआ और कई बार हुआ.उर्दू से मुहब्बत और शाइरी से इश्क़ ने मुझे अर्श-ओ-फर्श कि गर्दिश से उभार कर इन्टरनेट के ज़रिये आपके आस्ताने पर ला पहुँचाया जहां मैं आज भी सजदा गुज़ार हूँ.यहाँ इन के फज़ल से उर्दू अदब को नए सिरे से सीखने का मौक़ा मिला और इन की हौसला अफ़ज़ाई ने तख़य्युल और हुस्न-ए- नज़र को नए अन्दाज़ दिए.लिखने के शौक़ ने भी आप के साए में परवरिश पाई. मैं ख़ुद को हमेशा आपका मक़्रूज़ महसूस करता हूँ.
नौ-वारिदों की तालीम बोहत सब्र आज़्मा होती है.लेकिन ये इनकी तबीअत की खूबी थी की सब्र का दामन कभी तंग न हुआ. इन की शख़्सियत अपने आप में एक मिसाल है की इंसानी जज़्बात की हर परवाज़ इन के अल्फाज़ की सरगम से तराना-ए- तरब बन जाती है. रिहाई का लुत्फ़ कोई इन की फ़िक्र की असीरी में आये अल्फाज़ से पूछे ! ऐसी कैफ़ियत में जज़्ब हो कर सब्र- शिकन ख़यालात भी मुज़्दा बन जाते हैं और बाईस-ए- तस्कीन-ए- रूह हो कर पुरसुरूर बेख़ुदी के हामिल होते हैं. अल्फाज़ की मुरस्सा निगारी इन का जौहर है. शीरीं लफ़्ज़ों से ख़िजां में बहार की आमेज़िश पैदा करना इन का हुनर.
दौर-ए- हाज़िर में कम ही हस्तियाँ ऐसी हैं जिन के अशआर अपने हालात और ख़यालात और तअस्सुरात को नज़्म करते हैं और दिली जज़्बात के आईनादार हो कर ज़िदगी की रुदाद बन जाते हैं.
सरवर साहिब के कलाम में पाक सोज़-ओ-गुदाज़ मिलता है और हर दिल की ज़बान मालूम होती है. इन कीं तखलीक़ पर तबसिरा करने की मेरी औकात नहीं है. बसद इन्किसार अर्ज़ ये है की निकहत-ए- गुल किसी तशरीह-ओ-बयान की मोहताज नहीं.ये उन की शफ़क़त और मुहब्बत है की आप के दामन में हर रंग-ओ-बू लिए हुए एक चमन की फिजा कायम कर दी है. इस चमन की सैर से लुत्फ़अन्दोज़ और मह्जूज़ होना आपका हिस्सा है.
मुन्तज़िर हैं बज़्म में सारे ही अरबाब-ए- सु्ख़न
तुझ को 'सरवर' जमजमा-ए- पर्दाज़ होना चाहिए !

ये हुस्न की तर्ज़-ए- दिल नवाजी ये इश्क की सब करिश्मासाज़ी
बजुज़ फरेब-ए- नज़र नहीं कुछ भला मताअ-ए- हुबाब क्या है !

जो आज बैठे हो हसरतों का शुमार करने बताओ सरवर
खबर नहीं थी तुम्हे के अंजाम-ए- इश्क-ए- खाना खराब क्या है !
सरवर साहेब से मुलाकातों की जब याद आती है तो बेसाख्ता उनका ये कलाम याद आता है:
वो तेरी नीम निगाही वो तब-ओ-ताब-ए- जमाल
तेरे अबरू का तकब्बुर तेरी कामत का जलाल
थरथराते हुए लब तेरे वो रुखसार वो बाल
इश्क-ए- खुशकाम की सरगोशी का रंगीन वो जाल
साज़-ए- दिल पर वो धडकते हुए सुर और वो ताल
मौज-ए- नग़मा हो कोई या किसी शाइर का खयाल
सांस उखड़ी हुई घड़ियों की वो लमहे बेहाल
गरमी-ए- सोरिश-ए जज़्बात सरे शाम विसाल
दिल वो दीवाना ! के बेगाना-ए-अफ़्कार-ओ-मलाल
न ग़म-ओ-रंज-ओ-तरद्दुद न कोई खौफ-ओ-मलाल
मुझ को सब याद है वो तेरा जुदा हो जाना
अपने हालात पे बन्दों का खुदा हो जाना
वो मह-ओ-साल वो दिन रात कहाँ से लाऊँ
साथ गुज़रे हुए लम्हात कहाँ से लाऊँ
तू नहीं है न सही ये दिल-ए- बर्बाद तो है
लुट गया सारा जहां एक तेरी याद तो है !
मुझ को मालूम है अब तुझ को नहीं पाऊँगा
मैं बोहत दूर बोहत दूर चला जाऊंगा !!


मोहतरिम सरवर साहिब के लिए इजहारे एहतराम.ओ.शुक्र में मेरा सर ख़म है !

पी के स्वामी
दिल्ली १५.८.२०११
० ९८११६ ३४९५०



इत्तिफ़ाक़न......

बात बहुत पुरानी भी नहीं है.। बात उन दिनों की है (2009) जब मैं ग़ज़ल की बुनियादी उसूलों,बारीकियों की तलाश में ’इन्टरनेट’ पर आने-जाने लगा था । उर्दू की कई साइटों ,बज़्मों और महफ़िलों के सम्पर्क में आया और इन्हीं साइटों में से इत्तिफ़ाक़न.....एक साइट मिली ....www.urduanjuman.com और वहाँ मिले जनाब ’सरवर’ साहब ।.....फिर एक सिलसिला शुरु हो गया ....

जी हाँ ,मैं उन्हें इसी नाम से याद करता हूँ।वैसे आप का पूरा नाम ’सरवर आलम राज़’ है और ’सरवर’ आप का तख़्ख़्लुस (उपनाम) है। ’सरवर’ मात्र एक नाम ही नहीं ,एक पूरा व्यक्तित्व है ,एक संस्था है ,एक अदबी मिसाल है जो लगभग 50 सालों से उर्दू अदब और उर्दू ज़बान के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत है। उम्र के इस पड़ाव (76 साल ) पर भी आप के जोश-ओ-ख़रोश में कोई कमी नही आई है और न ही ऊर्जा में कोई कमी। आप का जन्म 16-मार्च-1935 को जबलपुर (म0प्र0), भारत में हुआ है (संक्षिप्त जीवन परिचय अगले पृष्ठ पर है ) आप पेशे से सिविल इंजीनियर हैं।. यहाँ यह बताना ग़ैर मुनासिब न होगा कि आप दिमाग से तो ’इन्जीनियर ’ हैं मगर दिल से ’शायर’ हैं । आप के वालिद मरहूम जनाब ’राज़ चाँदपूरी ’ साहब अपने ज़माने के ख़ुद एक नामचीन शायर थे जो दाग़ स्कूल के जनाब ’सीमाब अकबराबादी’ के शागिर्द थे । गोया कह सकते हैं कि शायरी आप को विरासत में मिली है।यहाँ आगे हम आप की उर्दू शायरी का ही चर्चा करेंगे।

’सरवर’ साहब से ’इन्टरनेट’ पर मुलाक़ात महज़ एक इत्त्फ़ाक (संयोग) था। आप उन दिनों ’आसान उरूज़ और शायरी की बुनियादी बातें ’पर एक धारावाहिक लेख लिख रहे थे और साईट पर लगाते भी जा रहे थे। बहुत ही अच्छा लेख था दिलचस्प और ज्ञान वर्धक था मगर अफ़्सोस कि यह आलेख ’उर्दू-स्क्रिप्ट’ में था .मैं सोचने लगा काश ! यह लेख हिन्दी लिपी में होता तो हमारे जैसे हिन्दी जानने वाले भी ऐसे आलेखों से लाभान्वित होते। उर्दू अदब में भी काफी अच्छा काम हो रहा है ज़रूरत है उसे हिन्दी जगत के प्रकाश में लाने की जिससे लोग एक दूसरे के साहित्यिक धरातल से बिना किसी पूर्वाग्रह के समझ सकें.परिचित हो सकें ।”सरवर’ साहब की गज़लों का हिन्दी में लिप्यंतरण इसी प्रयास और इसी भावना की एक कड़ी है.आशा है कि हिन्दी पाठकों को यह ग़ज़ल संग्रह पसन्द आएगा.

’सरवर’ साहब ने उर्दू की कई विधाऒं पर ,मसलन ग़ज़ल ,नज़्म ,रुबाईयात ,कता’ अफ़्साने ,नस्र वगैरह पर काम किया है और अपनी बात कही है .परन्तु ग़ज़लें काफी कही हैं । उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है "......मैं बुनियादी तौर पर ग़ज़ल का शायर हूँ ,नज़्में बहुत कम कही है।ग़ज़ल में ,मैं पुराने असातिज़ा (गुरुजनों) का मुक्क़लिद ( अनुयायी) हूँ और आप मेरे ख़यालात ,ज़बान और अन्दाज़-ए-बयां में रिवायती ग़ज़ल (पारम्परिक ग़ज़ल) का अक्स महसूस करेंगे ।जैसा कि मैनें ख़ुद कहा है .....



शायरी मेरी बराए बेत है ’सरवर’ कि मैं
हाशिया बरदार-ए-ग़ालिब,ख़ोशा-चीं-ए-’मीर’ हूँ

(खोशा-चीं = बचे-खुचे तिनके चुनने वाला)

'सरवर’ साहब ने लगभग 300 से ज़ियादा एक से बढ कर एक बेहतरीन और उम्दा ग़ज़लें कही हैं।आप ने अपनी इन ग़ज़लों को हिन्दी में प्रकाशित करने की सहर्ष अनुमति दी है जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ । इन में से 100 ग़ज़लों का चुनाव स्वयं में एक चुनौती भरा काम था।हमें सिर्फ़ उन्हीं ग़ज़लों का चयन करना था जो आम फ़हम हो और हमारे जैसे सामान्य पाठकों के दिल को छू जाय.यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना मैं आवश्यक समझता हूँ कि इस संकलन का रचना-क्रम शाइर के ग़ज़ल रचना-क्रम के अनुसार नहीं है.

’सरवर’ साहेब की ग़ज़लों पर टिप्पणी करने की न मेरी हैसियत है और न ही मेरी औकात और न ही मेरी क़ाबिलियत । इस के लिए आप सुधी पाठक गण हैं,आलोचक हैं,समीक्षक हैं.।और मेरा यह उद्देश्य यहाँ है भी नहीं। मेरा उद्देश्य तो मात्र यह है कि ’सरवर’ साहब की ग़ज़लों को ,जो उर्दू में लिखी गईं हैं , देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया जाय जिससे हिन्दी जानने वाले लोग भी उन की ग़ज़लों से परिचित हो सकें और आनन्द उठा सकें । उर्दू की ग़ज़लों को देवनागरी लिपी में प्रस्तुत करने की दिशा में काफी काम हो रहा है जिसमें प्रकाश पंडित ,अमर देहलवी,सुरेश जी.विजयवाते...आदि का नाम प्रमुख है। हिन्दी के कई प्रकाशकों ने तो उर्दू को देव नागरी में प्रस्तुत करने की बाक़ायदा सीरीज भी निकाली है और उर्दू के नामचीन शाइरों मसलन ग़ालिब,मीर,दाग़ ज़ौक़,फ़िराक़...को हिन्दी ज़ुबान में प्रस्तुत कर सराहनीय कार्य किया है और कर रहे हैं ।

डा0 कुँअर बेचैन कहते हैं "......ग़ज़ल कुछ शे’रों का समूह ही नहीं है या एक बह्र में कहीं गईं कुछ पंक्तियाँ नहीं है या रदीफ़ और काफ़ियों का प्रयोग ही नहीं है वरन वह एक तहज़ीब है ,एक कलात्मक अनुभव है।इसकी कुछ बारीकियां हैं ....ये बारीकियां ही अच्छी ग़ज़ल के गुण हैं...."
इस लिहाज़ से ’सरवर’ साहब की ग़ज़लों में वह तमाम गुण मौजूद हैं जो एक अच्छी ग़ज़ल के लिए ज़रूरी हैं. इनकी ग़ज़लों में तख़य्युल (कल्पना) है ,हुस्न-ओ-इश्क़ की अभिव्यक्ति है,तग़ज़्ज़ुल (ग़ज़लियत) है । शे’रियत (सच्चाई) भी है तो तसव्वुफ़ (अध्यात्म) भी है । ’ग़म-ए-जानां’ भी है तो ’ग़म-ए-दौरां’ भी है ।

’सरवर’ साहब जब यह कहते हैं कि

घर से निकले थे कि आईना दिखाएं सबको
हैफ़ ! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला
(सरापा= मैं स्वयं सर से पाँव तक पूरा )

तो बात सीधी सी है मगर सलीक़े से कही गई है .हम दूसरों में दोष तो देखते हैं मगर अपना दोष नहीं देखते .यह नहीं देखते कि जब आप एक ऊंगली (अंगुश्तनुमाई) किसी की तरफ़ उठाते हैं तो तीन ऊंगलियाँ आप की जानिब भी उठती हैं.

औरों पे बढ़े संग-ए-मलामत जो लिए हम
हर चेहरे में क्यों अपना ही चेहरा नज़र आया

क्या साफ़गोई है. कबीर की बानी की तरह "बुरा जो देखन मैं चला ...." सचमुच ऐसे शे’र कालजयी होते हैं ,दिल को छू लेते हैं

जब आप फ़र्माते हैं कि

काबे में जो देखा वही बुतख़ाने मे पाया
जैसा वो मिरे दिल में था वैसा नज़र आया

यह शे’र तसव्वुफ़ में है "जाकि रही भावना जैसी हरि मूरत देखी तिन तैसी..." यही सच्चाई है यही शे’रियत है

’सरवर’ साहब का इश्क़ ,इश्क़-ए-हक़ीकी है । अपनी माशूका से मुखातिब होते है। वह पर्दे में है ,रहस्यों से भरी हुई है,जानने की लाख कोशिश करते हैं फिर भी जान नहीं पाते .आदमी कब भला अपने आराध्य को समझ पाया है ।कभी ख़ुद को ढूँढ्ने की कोशिश करते है ,कभी अपनी माशूका को समझने की कोशिश करते हैं फिर कहते हैं

ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहां जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला

हो सकता है दूसरा पर्दा उठने के बाद तीसरा पर्दा भी निकले. और फिर वही न सुलझे रहस्यों को न समझ पाने का दर्द रह जाए,प्यास अधूरी रह जाए।
’सरवर’ साहब, हर रंग में हर अंदाज़ में अपनी माशूका से बात करते हैं कभी शिकायत करते है ,कभी सवाल करते हैं, कभी जवाब माँगते है ।
यही जुनून है ,यही दीवानगी है ।तसव्वुफ़ के रंग में आप का एक और शे’र ज़ेर-ए-नज़र है

मोजिज़ा है यह कि है दीवानगी ? हम क्या कहें
वो नज़र आए वहीं पर हम जहाँ देखा किए
यह बात दीगर है कि उनका सवाल हर बार अनुत्तरित रह जाता है ।कभी उलाहना देते हैं ।कभी झुँझलाते हैं ।कहते हैं

रह-ए-उल्फ़त में हमसे और क्या उम्मीद रखते हो ?
ये क्या कम है कि अपनी ज़ात को गर्द-ए-सफ़र जाना

और फिर अपनी मजबूरी भी कुछ यूँ बयान करते हैं ’

ख़ुद ही मैं अक्स हूँ ख़ुद ही आईना हूँ, मैं बला से ज़माने पे ज़ाहिर न हूँ
हाँ ,छुपूँ गर मैं ख़ुद से तो कैसे छुपूँ ,ये ख़लिश जो सताए तो मैं क्या करूँ

ज़ाहिर है स्वयं से छुपना सम्भव नहीं ।’अगर संभव होता तो एक रिन्द, ज़ाहिद से क्यों सवाल करता कि ’या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो’। जग से चाहे भाग ले कोई ,मन से भाग न पाय ।तोरा मन दर्पन कहलाय। यही दर्शन है ,यही आत्म-ज्ञान है।

उन्हें अपनी ज़िन्दगी से शिकायत है

ये तपती दोपहर में मुझ से साए का जुदा होना
ज़ियादा इस से क्या होगा भला बे-आसरा होना

या फिर जब कहते हैं कि

कहानी है तो इतनी है हमारी ज़िन्दगानी की
दलील-ए-कारवां मौहूम, गर्द-ए-कारवां बाक़ी
(मौहूम= भ्रम)
तो फिर ज़िन्दगी को किस नज़रिए से देखना बाक़ी रह जाता है ?

उन्हें अपनी मुहब्बत पर नाज़ भी. और एतमाद (विश्वास) भी कि

कम ख़ाक-ए-ग़रीबान-ए-मुहब्बत को न जानो
उठ्टेंगे इसी ख़ाक से कल ख़ाक-ब-सर और

ऐसे ही तमाम अश’आर ’सरवर’ साहब ने कहे हैं जो ज़िन्दगी की हक़ीक़त बयान करते है ।उनके चन्द अश’आर इसी संग्रह से आप की सेवा में पेश कर रहा हूँ फिर आप ख़ुद देखिए कि यह कहाँ तक यह आप के दिल को छूने में कामयाब हुआ है

ख़ुद को ही तारीख़ दुहराती है जब ’सरवर’ तो फिर
क्यों नज़र आया नहीं माज़ी में मुस्तक्बिल हमें ?


है ख़ता यह इश्क़ लेकिन ,ये गुनाह तो नहीं है
मैं ख़ता से तौबा करता जो गुनाहगार होता

जिन्हें तमीज-ए-वफ़ा नहीं है ,जिन्हें शऊर-ए-जुनूँ नहीं है
भला वो किस तरह राह-ए-ग़म में ,हिसाब-ए-हिज्र-ओ-विसाल देंगे ?

प्रकाश पंडित जी कहते हैं ".....इसमें कोई संदेह नहीं कि एक काव्य रूप के लिहाज से ग़ज़ल सीमित भावनाओं की वाहक है। और यह इतनी मथी जा चुकी है कि अब इस में अधिक मंथन की बहुत ही कम गुंजाइश रह गई है।लेकिन जो लोग इस प्रकार की गुंजाइश निकाल सकते हैं उन्हें अपने विचारों को ग़ज़ल का पहनावा पहनाने का पूरा अधिकार है ..."
और यह ग़लत भी नहीं है ।

इस लिहाज से ’सरवर’ साहब नें बख़ूबी यह गुंजाइश निकाली है और अपनी भावनाओं को ग़ज़ल में ढाला है।प्रेम शाश्वत होता है, अमर होता है।हर काल में ,हर दौर में शायरों और कवियों ने अपने अपने अंदाज़ में इस प्रेम का वर्णन किया है चाहे वह इश्क़-ए-मजाज़ी रहा हो या इश्क़-ए-हक़ीकी रहा हो।हुस्न-ओ-इश्क़ ,मुहब्बत ,संयोग-वियोग,मिलन-विरह हमेशा से उर्दू शायरी की रिवायती ज़मीन रही है और उर्दू के बहुत से शायरों ने इसी विषय पर अपने अपने तरीके से , अपने अपने अन्दाज़ में अपनी बात कही है ।इश्क़-ए- मज़ाजी में जब तसव्वुफ़ का रंग घुल जाता है तो इश्क़-ए- हक़ीकी बन जाता है ।.”ग़म-ए-जानां’ को जब विस्तार मिलता है तो ’ग़म-ए-दौरां’ बन जाता है।यह सच है कि यह विषय इतना मथा जा चुका है फिर जब अल्फ़ाज़ की जादूगरी गज़ल में ढलती है तो ज़िन्दगी का आईनादार हो जाती है । दुष्यन्त कुमार ने कहा है ’" ......मुझे अपने बारे में कभी ग़लतफ़हमी नहीं रही। मैं मानता हूँ कि मैं ’ग़ालिब’ नहीं हूँ। उस प्रतिभा का शतांश भी शायद मुझ में नहीं है ,लेकिन मैं यह नहीं मानता कि मेरी तकलीफ़’ग़ालि्ब’ से कम है या मैने कम शिद्दत से महसूस किया है। हो सकता है अपनी-अपनी पीड़ा को लेकर हर आदमी को यह वहम होता है......"।
मैं यह समझता हूँ कि हर कवि या शायर या हर संवेदनशील मना व्यक्ति का दर्द और दिल की धड़कन एक जैसी होती है अगर फ़र्क़ है तो उसकी अभिव्यक्ति में ,उसके तर्ज़-ए-बयां में। यही बात बेहद ईमानदारी और साफ़गोई से ’सरवर’ साहब ने भी कही है ".....ये (मेरी) शायरी बड़ी शायरी नहीं है और न ही ये शायरी किसी नए ख़्याल ,अन्दाज़ और चाल को शुरु करने की दावेदार है। अगर यह कुछ है तो एक आम इन्सान के ख़ुलूस और दिल से निकली हुई एक आवाज़ है। इस में आप को ’मीर’ और ’ग़ालिब’ ,’जिगर’ और ’फ़िराक़’,’हसरत’ और ’फ़ानी’ भले ही न मिलें लेकिन एक साहिब-ए-दिल इन्सान के सुख और दुख,उमीद और मायूसी, इश्क़ और मुहब्बत ,फ़िराक़ और विसाल और रंज-ओ-खुशी की दास्तां ज़रूर दिखाई देगी .......। "

’सरवर’ साहब का दर्द भी किसी से कम नहीं है जब वो कहते है

क्या किसी से कम है ’सरवर’ अपनी रूदाद-ए-अलम
बात ऐसी कौन सी है ’कैस’ और ’फ़रहाद’ में ?

तो उनके दर्द में अपना भी दर्द नज़र आता है

’सरवर’ साहब अपने को उस्ताद शायर नहीं मानते ,मगर उनके चाहने वाले और नौजवान शायरों को ’इस्लाह’ फ़र्माने में कभी कोताही भी नहीं की .बड़ी शिद्दत से और मुहब्बत से इस्लाह फ़र्माते हैं । यही उनकी सहजता है यही उनकी विनम्रता है। अपनी तमाम व्यक्तिगत परेशानियों के बावजूद ,आज भी वह अपनी साईट www.urduanjuman.com पर आते हैं और यथा-शक्ति और यथा-सम्भव उर्दू के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान करते हैं।

और अन्त में , "अयन प्रकाशन’ के प्रकाशक आत्मीय भूपाल सूद जी का धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने इस दिशा में हमेशा मेरा उत्साह वर्धन किया है ।यही सूद जी की महानत है ,यही उनकी विशेषता है ।इस संकलन को प्रकाशित कर एक बार पुन: आत्मीयता का परिचय दिया है। मै उनका कृतज्ञ हूँ ।साथ ही मैं धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ आदरणीय रिटायर्ड मेजर श्री जगदीश चन्द्र जैन जी ,प्रभात कुमार स्वामी जी का ,देवी नांगरानी,धीरज आमेटा जी का जिन्होंने इस संकलन हेतु ’आलेख लिखने का कष्ट किया और अपना सहयोग और योगदान दिया।
धन्यवाद


आनन्द.पाठक
जयपुर
Email akpathak@hotmail.com




सरवर : एक संक्षिप्त परिचय

सरवर आलम राज़ का जन्म 16.मार्च,1935 में जबलपुर (म0प्र0) भारत में एक संपन्न व सम्मानित ख़ानदान में हुआ था.इनके दादा जनाब हाफ़िज़ मोहम्मद जफ़र "हाफ़िज़" की उर्दू अदब और शे’र-ओ-सुख़न में गहरी रुचि थी और कभी कभी शौक़िया ख़ुद भी हाथ आज़्मा लिया करते थे.उनकी डायरी में लिखी गईं चन्द ग़ज़लें इस बात की प्रमाण थी कि उनकी इस फ़न पर कितनी पकड़ थी.
आप के वालिद मरहूम जनाब अबुल फ़ाज़िल मोहम्मद सादिक़ "राज़ चाँदपूरी" ख़ुद अपने ज़माने के एक नामचीन शायर थे जो दाग़ स्कूल के मौलाना सीमाब अकबराबादी के शागिर्द थे.अत: यह कहा जा सकता है कि शायरी आप को विरासत में मिली है

सरवर साहब की प्रारम्भिक शिक्षा जबलपुर (म0प्र0) भारत में हुई है. उच्च शिक्षा हेतु आप अलीगढ़ चले गए जहाँ से आप ने प्रतिष्ठित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) से 1956 में साइन्स में तथा 1959 में सिविल इंजिनियरींग की डिग्री हासिल की. बाद में आप वहीं पढ़ाने भी लग गए.

1964 में सिविल इंजिनियरींग में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु आप अमेरिका चले गए. ’लुईज़ीआना यूनिवर्सिटी तथा ’नार्थ कैरोलोना यूनिवर्सिटी’ से मास्टर डिग्री हासिल कर अमेरिका के नामी गिरामी कम्पनियों में परामर्शी सेवाएं देने लगे. आप ने 1995 में सेवा-निवॄत्ति ले ली ताकि उर्दू अदब की ख़िदमत कर सकें . आप स्थायी रूप से टेक्सास (अमेरिका) में बस गए है. आप ने अपनी बाक़ी ज़िन्दगी उर्दू ज़बान के प्रचार-प्रसार में लगा दी है

आप विभिन्न विषयों पर कई किताबें लिख चुके हैं जो निम्न हैं

1 'Analytical Methods in Structural Engineering '-- a Text Book in Structural Anlysis 1974
2 Structural Design in Steel -- a Text Book in Steel Design 1996

इसके अलावा ,2 - इस्लामी किताबें भी लिखी हैं

1 ” ए हैण्डबुक आफ हज एंड उमरा’-- इस्लामी बुक सर्विस (य़ू0के0) द्वारा 1990 में प्रकाशित .इस किताब में मुसलमानों द्वारा मक्का मुन्नवरा के हज करने के बारे में आवश्यक दिशा-निर्देश लिखा गया है .
यह किताब अंग्रेजी में लिखी गई है तथा इन्टर्नेट पर भी उपलब्ध है
2 ए हैण्डबुक आफ मुस्लिम बरियल’ -- 2002 में प्रकाशित .यह किताब इन्टेरनेट पर भी उपलब्ध है

इसके अलावा ,आप के ग़ज़लों के 4-संग्रह और अफ़्सानों का एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है .साथ ही ,अपने वालिद साहेब की अदब और शे’र-ओ-सुख़न पर एक विस्तृत समीक्षा भी लिखी है जो प्रकाशित भी हो चुका है.

1 शह्र-ए-निगार (ग़ज़्लियात) प्रकाशित 1993
2 रंग-ए-गुलनार (ग़ज़्लियात) प्रकाशित 1999
3 दुर्र-ए-शहवार (ग़ज़्लियात) प्रकाशित 2004
4 तीसरा हाथ ( उर्दू की लघु कहानियों का संग्रह) प्रकाशित 2001
5 गुलशन-ए-शिराज़ (ग़ज़्लियात) प्रकाशित 2010
6 बाक़ियात-ए-राज़ (अपने वालिद और प्रेरणा स्रोत "राज़ चाँदपूरी
की शे’र-ओ-सुख़न पर एक अध्ययन) प्रकाशित 2000


सरवर साहेब ने उर्दू साहित्य और उसकी अन्य विधाओं पर कई निबन्ध भी लिखे हैं जो काफी सराहे गए हैं ऐसे निबन्धों का एक संग्रह प्रकाशन के क्रम में है.

सरवर साहब उम्र के इस पड़ाव पर (76-साल) भी इन्टर्नेट पर काफी सक्रिय रहते हैं और उर्दू की कई महफ़िलों और बज़्मों में बड़े एहतराम के साथ याद किए जाते हैं. आज भी आप उर्दू के नवोदित शायरों को बड़ी मेहनत और मुहब्बत से ’इस्लाह’ फ़र्माते हैं .आप ने अभी हाल ही में ’रोमन उर्दू’ (उर्दू रोमन स्क्रिप्ट में) पर एक विस्तृत लेख लिख कर एक व्यवस्था दी है एक क़ायदा दिया है जो उर्दू की लगभग हर बारीकियों पर तवज़्ज़ह देती है ख़ास तौर से "इमला और तलफ़्फ़ुज़: में मददगार साबित होती है.
आप इन्टरनेट पर एक महफ़िल भी चलाते है जिसके आप मुख्य प्रबन्धक भी हैं जिसका पता है
www.urduanjuman.com Literary web site (Public)

www.sarawarraz.com Literary Web Site (personal)

www.mizraab.org Quarterly Urdu Online Magazine

sarwar_raz@hotmail.com E-mail

sarwarazi@yahoo.com E-mail



अस्तु
आनन्द पाठक







आलम राज़ सरवर ’सरवर’ : एक पहलू

’सरवर’ चलो, है मैकदा-ए-इश्क़ सामने
मुद्दत हुई ज़ियारत-ए-इन्सां न कर सके

’इश्क़’ को ’ज़ियारत-ए-इन्सां’ समझने वाले ’सरवर’ साहब को जब मैं पढ़ती हूँ तो लगता है जैसे ज़िन्दगी ,कविता का आवरण ओढ़ कर, वक़्त के बंधन की सीमा तोड़कर, रक्स करती हुई उतर रही है। उनकी ग़ज़लें उनके व्यक्तित्व का आईना बनकर जीवन और परिवेश की झलकियाँ दिखाती हैं. ।जी हाँ । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़े हुए अनुभवों, अनुभूतियों एवं जीवन-मूल्यों को अपनी क़लम के दम से विषय-वस्तु बनाकर क़लमबंद करने की महारत हासिल करने वाले जनाब ’सरवर’ साहब जो अपने वजूद से जुड़कर एक परम सच से साक्षात्कार होने के बाद जीने मरने का अंतर यूँ मिटा पाए हैं कि जिसके बाद कुछ और खोजने और पाने की ललक बाक़ी नहीं रह जाती। ’सरवर’ के अश’आर और भावों की पारदर्शिता कुछ न कहकर भी सब कुछ कह देने की तौफ़ीक़ रखते हैं

जो कहूँ तो क्या कहूँ मैं,जो करूँ तो क्या करूँ मैं?
मैं कहाँ हूँ और क्या हूँ , मुझे ख़ुद पता नहीं है

उनकी भावनात्मक व रचनात्मक अभिव्यक्ति सारगर्भित है. उनकी सादगी और निश्च्छलता उनके व्यक्तित्व और रचना की ही ख़ूबी नहीं अपितु उनके जीवन की , उनके सोच की एक जानी पहचानी महक है जो तन-मन की ख़ुशबू में लिपटी हुई ज़िंदगी के हर रंग से अठखेलियाँ करती है. किसी ने कहा है " ग़ज़ल एक सहराई (मरुस्थली) पौधे की तरह है जो पानी की कमी के बावजूद अपना विकास जारी रखता है." श्री आनन्द पाठक जी ने सरवर जी के परिचय भूमिका में कहा है ’........सरवर’ मात्र नाम ही नहीं ,एक पूरा व्यक्तित्व है ,एक संस्था है जो लगभग 50 सालों से उर्दू अदब और उर्दू ज़बान के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयासरत है......." सच है । ’सरवर’ किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं ।यह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी कि क़लमकार के रूप में वह भाषाई संस्कार और उर्दू अदब को आगे बढ़ाने का कार्य बड़ी शिद्दत और मेहनत से कर रहे हैं. विरासत में पाई हुई इस अदबी टक्साल को बड़ी दानिशमंदी के साथ बाँट रहे हैं. जिन संस्कारों की नींव बचपन में रखी गई हो वहां मानसिक ताने बाने की बुनियाद बननी लाज़मी है जो आगे चलकर वैश्विक दॄष्टिकोण के निर्माण में अपनी पहल और प्रमुखता दर्शाती है.
शील जी अदीबों से कहते हैं कि ...........
"अदब के कारीगरो आज ललकारता है देश तुम्हें
इन्क़लाब के लिये
नई जन्नत के लिये
लाल भोर के लिये
जो रेशम के कीड़े की तरह
नई सभ्यता, नये अंदाज़ को जन्म देता है"
जैसे रोशनी का जन्म अँधेरे के गर्भ से होता है, वैसे ही कलात्मक रचना का उजाला साहित्य के कलश से गीत, ग़ज़ल के रूप में हमारे सामने आता है......
लौट आती है सदाएँ तो ग़ज़ल होती है
जज़्ब वे मोती सजाएं तो ग़ज़ल होती है
ग़ज़ल कहना एक क्रिया है, एक अनुभूति है, एक कला है जिसमें रचनाकार अपने ह्रदय में उमड़ते भावों को, उद्गारों को सरल और सहज भाषा में अभिव्यक्त करता है, फिर वही भाषा, वही शैली और वही शिल्प पाठक को अत्यधिक प्रभावित करती है. रचनात्मक लेखन का वही शब्द- सौंदर्य तथा कथ्य-माधुर्य शैली कालान्तर में रचनाकार का परिचय और पहचान बन जाती है. जनाब ’सरवर’ ने फ़र्माया है "..... यह शाइरी मेरे जज़्बात की तर्जुमानी और मेरे ख़यालात- ओ- तसव्वुरात को एक हद तक अक्कासी करती है. मेरी अपनी ज़हनी- ओ- अदबी आसूदगी के लिये यही बहुत काफ़ी है......"। जी हाँ। उनके परिचय में इससे ज़ियादा कुछ कहा भी नहीं जा सकता ...........
न मैं क़ील का, न मैं क़ाल का, न मैं हिज्र का, न विसाल का
मैं हूँ अक्स अपने ख़याल का, मैं फ़रेब अपनी ही जाँ का हूँ

सच है. मात्र नई मानवीय चिंता ही कविता नहीं रच सकती. उसके लिये ज़रूरी है एक उर्जस्वित भाव-बोध, समॄद्ध कल्पना, रचनात्मक भाषा और एक शिल्प सौंदर्य जो रचनाकार को उसकी पहचान देता है. ’सरवर’ साहब की शाइरी में गहराई, गीरआई, सिलासत, रवानी, बंदिश की चुस्ती, अल्फ़ाज़ और मुहाविरों का सही इस्तेमाल बख़ूबी पाया जाता है. शब्दों की कसावट और बुनावट यह ज़ाहिर करती है कि सरवर साहब इस टक्साल के धनी है. ग़ज़लें ताज़ा हवा के नर्म झोंके की तरह ज़ेहन को छूती हुई दिल में उतर जाती है. उनकी शायरी यक़ीनन उन का ख़ज़ाना है, लेकिन फ़साना सारे ज़माने का है. वह सारे ज़माने को इस तरह विश्वास में ले लेते हैं कि आप बीती जग बीती लगने लगती है...
हमने हाथों की लकीरों में तुम्हें ढूँढा था
वो भी था इश्क़ का क्या एक ज़माना साहिब !
सरवर जी के रचनात्मक क्षितिज का कैनवास काफी विस्तृत है. उन्होंने ने उर्दू की कई विधाऒं पर ग़ज़ल ,नज़्म ,कत्आत, रुबाई, गीत, अफ़साने पर क़लम चलाई है. अपनी कल्पनाओं में वह मनोभावों का ऐसा रंग भरते हैं कि अल्फ़ाज़ खुद-ब-खुद बोलने लगते हैं. आम इन्सान की तरह हंसते- रोते, दुख- सुख की चाशनी का ज़ायका लेते हुए जीवन पथ पर अपने मनोभावों को अपनी क़लम से शब्दों के ताने बाने में बुनकर जब वह प्रस्तुत करते है तो दिल से दिल तक एक अदॄश्य पुल बन जाता है, मानवता धड़क उठती है और ग़ज़ल के माध्यम से कही हुई उनकी हर बात दिल में उतर जाती है और अपना गहन प्रभाव छोड़ जाती हैं. यही तासीर (प्रभाव)उनके अश’आर में पाई जाती है जहाँ भावनात्मक अभिव्यक्ति दिल की रौशनदान से झाँकती हुई अपने ही अक्स को दोहराती है.....
मुसीबत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इन्सां पर
ज़रा सी छाँव भी अपना ही घर मालूम होती है

क़लम एक अद्भुत हथियार है, एक ताक़त है, एक हौसला है , जीवन संचार का एक माध्यम है जिससे रचनाकार अपनी कलात्मक सोच के ताने-बाने से शब्द-शिल्पी की तरह बुन कए , शब्दों को मूर्ति में ढालकर और तराश कर अपनी रचना को आकार देता है. कहते हैं .अच्छी कविता के भीतर कंगारू के पेट की तरह एक और कविता छुपी होती है तिलिस्म की तरह जो अपने आप में अलग और पूरे व्यक्तित्व के साथ भी गढ़ रही होती है.।कभी मैने दो शे’र कहे थे
इक आसमां में और भी हैं आसमां कई
मुझको हक़ीक़तों से वो वाक़िफ़ करा गया

पलकें उठी तो उट्ठी ही अब तक रहीं मेरी
झोंका हवा का पर्दा क्या उसका उठा गया !
इस कला के निपुण और धनी जाने-माने शायर जनाब सरवर आलम राज़ हिंदी उर्दू ज़बान के एक सशक्त हस्ताक्षर है. उनकी शाइरी दोनों भाषाओँ की मिली- जुली गंगा-जमुनी ज़ुबान का तहज़ीबी संगम है और यही उनके व्यक्तित्व का आईना भी है.
कुरेद लेता हूँ यादों की राख मैं अक्सर
यहीं कहीं से धुआँ इश्क़ का उठा होगा !
अपनी पहचान का हर पहलू बड़ी सादगी से पेश करते हुए कहते हैं....
कैसी तलाश, किस की तमन्ना, कहाँ की दीद
ख़ुद मेरी ज़ात मेरे लिये राज़ बन गई !
कहते हैं, कवि और शब्द का अटूट बंधन होता है. कवि के बिना शब्द तो हो सकते हैं, परंतु शब्द बिना कवि नहीं हो सकता. एक हद तक यह सही भी है, पर दूसरी ओर 'कविता' केवल भाषा या शब्दों का समूह नहीं. अपितु उन शब्दों के सहारे अपने भावों को भाषा में व्यक्त करने की कला ही कविता-गीत-गज़ल है.वह किस तरह अपने हर अहसास को नफ़सत-ओ-नज़ाकत से शेर में ढाल लेते हैँ, लुत्फ़ अन्दोज़ होइए
अना की किर्चियां बिखरी पड़ी थी राह-ए-आख़िर में
ये आईने तो हमने ज़िन्दगी भर ख़ूब बरते थे ॰॰
लखनऊ, डेनमार्क, डैलस में अनेक मुशाइरों में शिरकत करते हुए ,वह अपनी ग़ज़लियात की अमिट छाप छोड़ते आए हैं. आप ने कई मुशायरों में मीर-ए-मजलिस सदारत भी की है डैलस में हुए एक मुशाइरे में जनाब बेकल उत्साही जी ने आप की शान में एक शेर नवाज़ा था,
क़ायम की धरती का पौधा, सरवर आलम राज़
डैलस की शादाब ज़मीं पर उर्दू की आवाज़
उर्दू की आवाज़ हुई बैनल अक़वानी
जिसकी ख़ुशबू से महकी तहज़ीब अवामी
तसव्वुर का परिंदा कभी आकाश की ऊंचाइयों को छूता है, तो कभी ह्रदय की गहराईयों में डूबता है. जहाँ जहाँ पर जिस जिस सच के साथ उसका साक्षात्कार होता है उसी सत्य को क़लम की जुबानी कागज़ पर भावपूर्ण अर्थ के साथ पेश कर देता है.जब वो कहते हैं ..
छुपाएंगे कहाँ तक हाल-ए-इज़्तराब-ए-दिल वो लोगों से
ग़ज़ल उन की बता दे हाल- ए- सरवर आलम
इसी सच का निर्वाह और निबाह किया है सरवर जी ने, जिनकी शायरी के अनंत विस्तार से मैं मुख़ातिब हुई हूँ. उनकी व्यक्तित्व और शख्सियत पर क़लम चलाना मुश्किल ही नहीं , बहुत मुश्किल है। ऊँचाइयों के सामने अपना क़द क्या माइने रखता है ! इसे मैं बख़ूबी महसूस कर सकती हूँ। गागर में सागर समाहित करने का इल्म उन्हें ख़ूब आता है. आप के वालिद मरहूम ’राज़ चाँदपूरी’ साहब अपने ज़माने के ख़ुद एक नामचीन शायर थे जो दाग़ स्कूल के जनाब ’सीमाब अकबराबादी’ के शागिर्द थे. शाइरी आपको विरासत में मिली है. एक अच्छे शाइर के साथ साथ आप एक बहुत अच्छे इन्सान भी है, इस बात का अहसास उनसे बात करने पर होता है कि किस क़दर अपनत्व और मुहब्बत के साथ वे पेश आते है. यही उनकी सादगी भी है और यही उनका बड़प्पन भी. ।अपनी मेयारी कलाम और अपने ख़ास अंदाज़-ए-फ़िक़्र की बदौलत ’सरवर’ साहब एक मक़बूल शायर की हैसियत से हिंदोस्तान और पाकिस्तान में अपना एक ख़ास मुक़ाम बनाए हुए हैं. बक़ौल शायर
हुआ हूँ ऐसा गिरफ़्तार-ए-आरज़ू ’सरवर’
न इब्तिदा की ख़बर है न इन्तिहा की ख़बर है

उनकी अपनी साईट www.urduanjuman.com उनके व्यक्तित्व का आईना है, जहाँ "शहनाई" क़लाम सरवर में डेनमार्क के मशहूर गुलोकार परवेज़ अख़्तर जी ने उन के कलामों को अपनी आवाज़ से सजाया है. उनकी ग़ज़लों के कई संग्रह, प्रकाशित हो चुके हैं जैसे
शहर निगार १९९३ http://www.sarwarraz.com/books/shehrenigar.pdf
रँग गुलनार १९९९ http://www.sarwarraz.com/books/rangegulnar.pdf
और दुर्रे शहवार २००४ http://www.sarwarraz.com/books/durreshehwar.pd

ऐसी उम्दा और दिलपज़ीर अजीम शायरी के लिए जनाब ’सरवर’ साहब जी मुबारक़बाद के हक़दार हैं, और मुझे उम्मीद ही नहीं यक़ीन भी है कि अदब शनास इस ग़ज़ल संग्रह का पर्दा उठते ही इसे बतौर तहजीब का संगम अपनायेंगे
और अन्त में यही कि
शिकवा बरलब न हो, उसको भी ग़नीमत समझो
लोग ’सरवर’ तुम्हें भूले से भी गर याद करें
अस्तु
देवी नागरानी

[ नोट : आ0 देवी नांगरानी जी सिन्धी साहित्य की एक अग्रणी लेखिका हैं .आप ने कई साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लिया है .आप कविता ,कहानी और लेख लिखती रहती हैं। इन्टर्नेट पर आप कई साहित्यिक ग्रुप में सक्रिय हैं.आप को उर्दू से मुहब्बत है अदब-आश्ना हैं. मेरे विशेष आग्रह पर आप ने यह लेख इस संग्रह के लिए लिखा है ------आनन्द पाठक]

कुछ यादें ............कुछ बातें

"अपने अश’आर से मैं फूल खिला लेता हूँ
क्यों हो ’सरवर’ भला मुहताज-ए-गुलिस्तां कोई "

अपने बचपन का वो ज़माना मुझ को खूब याद है जब हर शाम वालिद मरहूम जनाब ’राज़ चाँदपूरी’ दफ़्तर से वापसी के बाद चारपाई पर लेट कर फ़िक्र-ए-सुख़न किया करते थे।हुक़्क़ा मुँह में दबाए और आंखें बन्द किए वो धीमी-धीमी आवाज़ में गुनगुनाते जाते और थोड़ी थोड़ी देर में सिरहाने से काग़ज़ उठा कर उसमें शे’र लिख लेते थे! घर की ख़ामोशी,हुक़्क़े की गुड़गुड़ाहट और वालिद मरहूम की धीमे सुरों में गुनगुनाती हुई आवाज़ अजीब समां बाँध देती थी। वैसे भी हमारे घर का माहौल सीधा-सादा ,शरीफ़ाना और अदबी था।वालिद साहब के अलावा भी सब भाई बहनो को शे’र-ओ-अदब का शौक़ (साहित्यिक रुचि) था।वालिद मरहूम के सभी दोस्त और मिलने वाले पुराने वक़्तों के सीधे-सादे और शरीफ़ बुज़ुर्ग थे।इन में मुसलमान, हिन्दू,सिख सभी शामिल थे।एक दूसरे के घर आना -जाना और सबके सुख-दुख में साथी होना ,उनकी ज़िन्दगी का ख़ुशगवार हिस्सा था । ऐसे पुरसुकून और दिलकश माहौल में अगर मेरी तबीयत शायरी की तरफ़ माइल हुई (झुकी) तो कोई हैरत की बात नहीं । उसी ज़माने में मैंने शे’र कहना शुरु किया था । इस शुरुआत की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है।
मैं जब सातवीं क्लास में पढ़ता था और मेरी उम्र तकरीबन 11-साल की थी तो एक दिन मेरे एक साथी महाशय प्रसाद ने खेल कूद के दौरान मुझ से अचानक कहा-’सरवर !तुम शे’र क्यों नहीं कहते?’ यह बात मेरे दिल को कुछ ऐसी लगी कि दूसरे ही दिन एक ग़ज़ल हो गई जिसका अब सिर्फ़ एक शे’र ही याद रह गया है

"पिन्दार-ए-तमन्ना टूट गया,अब दिल का आलम क्या होगा ?
फिर जान पे शायद बन जाए ,नाकामी का ग़म क्या होगा ?"
(पिन्दार = गुरूर)
मैं ग़ज़ल लिख कर वालिद मरहूम की चारपाई पर रख आया और कुछ ख़ौफ़ और कुछ उम्मीद के आलम में धड़कते दिल के साथ उनके आने का इन्तिज़ार करने लगा।वो दफ़्तर से आए तो ग़ज़ल उठा कर देखी और उनके मुँह से बे-अख़्तियार (अकस्मात) निकला ’अच्छा’।फिर मुझको बुला कर उन्होंने ’शाबाश’ दी और उसी शाम जब उनके कुछ दोस्त मिलने आए तो उन्होंने बड़े फ़ख़्र से अपने दोस्तों से कहा ’आज हमारे घर एक नया शायर पैदा हुआ है ! सरवर भी शे’र कहने लगा है।’ उस वक़्त उनकी आँखों में जो ख़ुशी की बेपनाह चमक थी वो मुझको आज तक याद है।
उसके बाद मेरी शायरी और वालिद मरहूम की इस्लाह का सिलसिला कई साल जारी रहा और मेरे पास दर्ज़नों ग़ज़लें जमा हो गईं। फिर एक दिन अचानक यह सिलसिला मालूम नहीं क्यों रुक गया।मैं पढ़ने के लिए अमेरिका चला आया और मेरी ग़ज़लों की किताब ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर हमेशा के लिए गुम हो गई जिसका मुझको आज तक बेहद रंज है। 1969 में वालिद साहब का इन्तिक़ाल हो गया और मैं 1971 में मुस्तकिल (स्थाई रूप से) अमेरिका आ बसा। यहाँ फिर शायरी शुरु की जो आज तक जारी है और शायद आख़िरी साँस तक जारी रहेगी।
मुलाज़मत (नौकरी) से ’रिटायर’ होने के बाद मुझे अपने कलाम को छपवाने का ख़्याल आया और अगले चन्द सालों में मेरी 4-किताबें (शह्र-ए-निगार ,रंग-ए-गुलनार,दुर्र-ए-शाहवार और गुलशन-ए-शिराज़ ) छप गईं। इसके अलावा भी कई और किताबें आईं लेकिन इस दौरान में जो सब से ज़ियादा ख़ुशगवार बात पेश आई वो कुछ ऎसे दोस्तों से इन्टर्नेट पर मुलाक़ात थी जिनकी मादरी ज़ुबान (मातृ-भाषा)तो उर्दू नहीं थी लेकिन जिनको ग़ज़ल का बेहद शौक़ था ये सब दोस्त इन्सानियत और इन्सान-दोस्ती की क़द्रों से मालामाल थे।इन्हीं में से मेरे एक दोस्त आनन्द पाठक भी हैं जिन से मैं आज तक नहीं मिल सका हूँ लेकिन जिनकी मुहब्बत और ख़ुलूस से निहाल हूँ। उन्होंने मेरे कलाम को हिन्दी दुनिया के सामने पेश करने पर बहुत जोर दिया। पाठक जी ने ही मेरी ग़ज़लों को मेहनत और मुहब्बत से ’देव नागरी’ लिपी में लिख कर उनमें से 100-ग़ज़लों को चुना और आज ये ग़ज़लें " एक पर्दा जो उठा......"के नाम से किताबी शक्ल में आप के सामने इस उम्मीद के साथ पेश की जा रही हैं कि आप को पसन्द आयेंगी या कम से कम नापसन्द नहीं होंगी।
मेरी शायरी एक सीधे सादे दर्दमन्द इन्सान की सीधी सादी दर्दमन्द शायरी है , इसमें न तो कोई पेचदगी है और न ही कोई करतबबाज़ी।मैं ग़ज़ल का शायर हूँ और ग़ज़ल नाम है इश्क़-ओ-मुहब्बत का, इन्सान की कामरानियों और नामुरादियों का,मुहब्बत और दर्दमन्दी का, हुस्न और इश्क़ की तिलिस्माती दुनिया का और हर उस जज़्बे का जिससे इन्सान की ज़िन्दगी सरशार और सरख़ुश (आनन्दित और आह्लादित) होती है ।ये शायरी बड़ी शायरी नहीं है और न ही ये शायरी किसी नए ख़्याल ,अन्दाज़ और चाल को शुरु करने की दावेदार है। अगर यह कुछ है तो एक आम इन्सान के ख़ुलूस और दिल से निकली हुई एक आवाज़ है। इस में आप को ’मीर’ और ’ग़ालिब’ ,’जिगर’ और ’फ़िराक़’,’हसरत’ और ’फ़ानी’ भले ही न मिलें लेकिन एक साहिब-ए-दिल इन्सान के सुख और दुख,उमीद और मायूसी, इश्क़ और मुहब्बत ,फ़िराक़ और विसाल और रंज-ओ-खुशी की दास्तां ज़रूर दिखाई देगी । और क्या अजब कि अगर आप कान लगा कर सुनें तो आप को अपने ही दिल की धड़कन सारे इन्सानों की कहानी कहती हुई सुनाई दे जाए ! अगर इस किताब का एक शे’र भी आप के दिल के तारों को छेड़ सका तो मैं यह समझूँगा कि मुझको अपनी सारी मेहनत-ओ-मुहब्बत का सिला मिल गया है।
बड़ी नाइन्साफ़ी होगी अगर मैं आनन्द पाठक जी के अलावा रिटायर्ड मेजर जनाब जगदीश जैन साहेब ,देवी नांगरानी साहिबा,प्रभात कुमार स्वामी जी और धीरज आमेटा की दिली शुक्रिया अदा न करूँ।इन सबकी और ऐसे ही कितने दूसरे दोस्तों की हिम्मत अफ़्ज़ाई और मुहब्बत ने मुझ को शे’र कहने और कहते रहने की उमंग बख़्शी है और जीने और जीते रहने का सलीक़ा सिखाया है।
सबसे आख़िर में ,मेरा निहायत ख़ुशगवार फ़र्ज़ है कि मैं अपनी शरीक-ए-हयात (जीवन संगिनी) बेगम क़ैसर राज़ी का तह-ए-दिल से मुहब्बत भरा शुक्रिया अदा करूँ जिन्होंने उम्र भर हर हाल में मेरा साथ निभाया और मुझको उस मुहब्बत और दिली सुकून से नवाज़ा है जिसके बग़ैर शायरी तो क्या ज़िन्दगी का कोई काम भी ठीक ढंग से नहीं हो सकता था ।

"अफ़साना बन न जाए कहीं बात राज़ की
यूँ मुख़्तसर हिकायत-ए-नाज़-ओ-नियाज़ की"

1-सितम्बर-2011 सरवर आलम राज़ ’सरवर’
टेक्सस ,अमेरिका



सूची

1 ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
2 दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी
3 बयान-ए-हुस्न-ओ-शबाब होगा
4 बात ऐसी क्या हुई साहिब !
5 नहीं मुझ को फ़िक्र-ए-साहिल ग़म-ए-नाख़ुदा नहीं है
6 तिरा यूँ फ़ैसला ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हो जाए
7 दिल को यूँ बहला रख़्ख़ा है
8 जो अता करते हैं वो नाम-ए-ख़ुदा देते हैं
9 जब भी तेरा ख़याल आया है
10 आ भी जा कि इस दिल की शाम होने वाली है
11 जब नाम तिरा सूझै जब ध्यान तिरा आवै
12 कहाँ से आ गए तुम को न जाने
13 खेल इक बन गया ज़माने का
14 दिल पे गुज़री है जो बता ही दे
15 शाम-ए-अलम क्या शाम थी वो और रात भी क्या तनहाई की !
16 छोड़िए छोड़िए यह ढंग पुराना साहिब !
17 मुहब्बत आश्ना हो कर वफ़ा ना-आश्ना होना
18 क्या ख़ूब तुम ने मेरी वफ़ा का सिला दिया
19 कोई आज बैठा है नज़रें चुराए
20 हम हैं काबे से ही वाबस्ता ,न बुतख़ाने से
21 उम्मीद-ओ-आरज़ू मेरी दमसाज़ बन गई
22 न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में
23 हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशिक़ी हासिल मुझे
24 माहौल साजगार फ़िज़ा ख़ुश्गवार है
25 दामन-ए-तार-तार ये सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का
26 दिल दुखाना तिरी आदत है भुलाई न गई
27 हूँ ख़स्ता नफ़स आँख भी भर आई है
28 हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परिशां क्या क्या
29 जिगर सुलगता हुआ दिल बुझा बुझा होगा
30 मरीज-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना
31 क्या तमाशा देखिए तहसील-ए-लाहासिल में है
32 कहने को यूँ तो ज़िन्दगी अपनी ख़राब की
33 दिल ही दिल में डरता हूँ तुझे कुछ न हो जाए
34 इलाही ! हो गया क्या आख़िर इस ज़माने को
35 सब मिट गए माँगे हैं मगर तेरी नज़र और
36 मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर इख्तियार होता
37 दयार-ए-जौर में दिल हार ,जान वार आए
38 अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके
39 करे कर्ज़ तेरे अदा कोई ,ऐ निग़ाह-ए-यार ! कहाँ तलक ?
40 आश्ना थे ख़ुद से फिर ना-आश्ना होते गए
41 रोज़-ओ-शब रुलाएगी आप की कमी कब तक?
42 कभी तुझ पे मेरी निगाह है ,कभी ख़ुद से मुझ को ख़िताब है
43 रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई कभी मिरा हम क़दम न होता
44 तमाम दुनिया में ढूँढ आया मैं ग़ुमशुदा ज़िन्दगी की सूरत
45 ज़माना एक जालिम है किसी का हो नहीं सकता
46 रह-ए-उल्फ़त निहायत मुख़्तसर मालूम होती है
47 नज़र मिली बज़्म-ए-शौक़ जागी,पयाम अन्दर पयाम निकला
48 नफ़स नफ़स सर-ब-सर परेशां,नज़र नज़र इज़्तिराब में है
49 जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे
50 हमने सब कुछ ही मुहब्बत में तिरे नाम किया
51 हसरत-ओ-यास को रुख़सत किया इकराम के साथ
52 आफ़त हो,मुसीबत हो, क़यामत हो, बला हो
53 कूचा कूचा नगर नगर देखा
54 हयात मौत का ही एक शाखसाना लगे
55 ख़ुशावक़्ते कि वादे कर के तुम हम से मुकरते थे
56 अजीब कैफ़-ओ-सुकूं जूस्तजू में था
57 लरज़ रहा है दिल-ए-सोगवार आँखों में
58 इक रिवायत के सिवा कुछ न था तक़दीर के पास
59 हिकायत-ए-ख़लिश-ए-जान-ए-बेक़रार न पूछ
60 सुना है अर्बाब-ए-अक़्ल-ओ-दानिश,हमें यूँ दाद-ए-कमाल देंगे
61 हमें ख़ुदा की क़सम याद आईयां क्या क्या
62 दिल ये कहता है तवाफ़-ए-कू-ए-जानाना सही
63 जब जब वो सर-ए-तूर तमन्ना नज़र आया
64 सौदा ख़ुदी का था न हमें बेख़ुदी का था
65 याद भी ख़्वाब हुई याद वो आते क्यों हैं ?
66 तेरा गुज़र इधर जो ब-रंग-ए-सबा हुआ
67 ग़म-ए-ज़िन्दगी ! तिरा शुक्रिया ,तिरे फ़ैज़ ही से यह हाल है
68 ’सरवर’ जिगर के दाग़ नुमायां न कीजिए
69 हुस्न इर्फ़ान-ए-हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं
70 रंग-ओ-ख़ुश्बू शबाब-ओ-रानाई है
71 आबला पा घूमता हूँ वादी-ए-बेदाद में
72 हर आन मुहब्बत में मिरी जाँ पे बनी है
73 कशाकश-ए-ग़म-ए-हस्ती सताए क्या कहिए
74 यूँ आफ़्ताब-ए-शौक़ शब-ए-ग़म में ढल गया
75 दिल ने दुहराए कितने अफ़साने
76 सुब्ह-ए-इशरत देख कर ,शामें ग़रीबां देख कर
77 पास है तुमको अगर पिछली शनासाई का
78 क्यों हर क़दम पे लाख तक्कलुफ़ जताइए ?
79 ग़म-ए-फ़ुर्क़त की लौ हर लम्हें मद्धम होती जाती है
80 पूछिए मिरे दिल से इन्तज़ार का आलम
81 निगाह ख़ुद पे जो डाली तो ये हुआ मालूम
82 गो चाक रहा इस दिल-ए-नाशाद का दामन
83 जिगर की,दिल की ,निगाहों की ,जिस्म-ओ-जां की ख़बर
84 इलाही ! क्यों नहीं जाता है ये मेरे जी का आलम
85 सूरत-ए-ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-दर्द-ए-जिगर आता है
86 कोई तुम सा हो कज अदा न कभू
87 मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ गुनहगार नहीं हूँ
88 हमेशा आर्ज़ूओं पर बसर की
89 न मैं सुब्ह का, न मैं शाम का ,न मैं ज़मीं का हूँ,न जमां का हूँ
90 ज़मीं बाक़ी है पहले सी न ही वो आस्मां बाक़ी
91 कुछ इस तरह से तसव्वुर में बे-हिजाब हुए
92 रसन ये क्यों है बताओ ये दार कैसा है
93 जफ़ाएं देख लिया बे-वफ़ाईयां देखीं
94 दिल ने किसी की एक न मानी
95 रुस्वा रुस्वा सारे ज़माने
96 बता ये जज़्ब-ए-बे-इख़्तियार क्या होगा ?
97 शब-ए-ग़म आर्ज़ूओं की फ़िरावानी नहीं जाती
98 आप आए याद की वो फ़ित्ना सामानी हो गई
99 मिरा जौक़-ए-मुहब्बत देखिए क्या गुल खिलाता है
100 उम्र भर रोया किए ना-कामियां देखा किए
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ग़ज़ल 1 : ढूँढते ढूँढते ख़ुद को….

ढूँढते ढूँढते ख़ुद को मैं कहाँ जा निकला
एक पर्दा जो उठा दूसरा पर्दा निकला !

मंज़र-ए-ज़ीस्त सरासर तह-ओ-बाला निकला
गौ़र से देखा तो हर शख़्स तमाशा निकला !

एक ही रंग का ग़म खाना-ए-दुनिया निकला
ग़मे-जानाँ भी ग़मे-ज़ीस्त का साया निकला !

इस रहे-इश्क़ को हम अजनबी समझे थे मगर
जो भी पत्थर मिला बरसों का शनासा निकला !

आरज़ू ,हसरत-ओ-उम्मीद, शिकायत ,आँसू
इक तेरा ज़िक्र था और बीच में क्या क्या निकला !

जो भी गुज़रा तिरी फ़ुर्क़त में वो अच्छा गुज़रा
जो भी निकला मिरी तक़्दीर में अच्छा निकला !

घर से निकले थे कि आईना दिखायें सब को
हैफ़ ! हर अक्स में अपना ही सरापा निकला !

क्यों न हम भी करें उस नक़्श-ए-कफ़-ए-पा की तलाश
शोला-ए-तूर भी तो एक बहाना निकला !

जी में था बैठ के कुछ अपनी कहेंगे ’सरवर’
तू भी कमबख़्त ! ज़माने का सताया निकला


ग़ज़ल 2 : दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी…..

दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?
मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी , वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ ?

हाले-दिल गर कहूँ मैं तो किस से कहूँ,और ज़बाँ बन्द रक्खुँ तो क्यों कर जियूँ ?
ये शबे-इम्तिहां और ये सोज़े-दूरूं ,खिरमने-दिल जलाए तो मैं क्या करूँ ?

मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं , पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं
मैं शराबी नहीं ! मैं शराबी नहीं ! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?

सोज़े-हर दर्द है , साज़े-हर आह है , गाह बे-कैफ़ हूँ सरखुशी गाह है
मेरी हर आह में इक निहाँ वाह है ,इश्क़ जादू जगाए तो मैं क्या करूँ ?

कुछ ये खुद-साख़्ता अपनी मजबूरियाँ ,कुछ ज़माने की सौगा़त मेह्जूरियाँ
और उस पर कि़यामत की ये दूरियाँ,चैन इक पल न आए तो मैं क्या करूँ ?

मुझको दुनिया से कोई शिकायत नहीं , झूठ बोलूँ मिरी ऐसी आदत नहीं
ये हक़ीक़त है यारो ! हिकायत नहीं ,बे-सबब वो सताए तो मैं क्या करूँ ?

ज़हमते - ज़ीस्त है ,दौर-ए-अय्याम है , ना-मुरादी मिरा दूसरा नाम है
क्यों ग़मे-मुस्तक़िल मेरा अन्जाम है,जब क़ियामत ये ढाए तो मैं क्या करूँ ?

ख़ुद ही मैं अक़्स हूँ ,ख़ुद ही आईना हूँ ,मैं बला से ज़माने पे ज़ाहिर न हूँ
हाँ ! छुपूँ गर मैं ख़ुद से तो कैसे छुपूँ ये ख़लिश जो सताए तो मैं क्या करूँ ?

शायरी मेरी ’सरवर’ ये तर्ज़े-बयाँ ,ये तग़ज़्ज़ल , तरन्नुम ,ये हुस्ने-ज़बाँ
सब अता है ज़हे मालिक-ए-दो जहाँ! गर किसी को न भाए तो मैं क्या करूँ ?


ग़ज़ल 3 : बयान-ए-हुस्न-ओ-शबाब…

बयान-ए-हुस्न-ओ-शबाब होगा
तो फिर न क्यों इज़्तिराब होगा ?

ख़बर न थी अपनी जुस्तजू में
हिजाब-अन्दर-हिजाब होगा !

कहा करे मुझको लाख दुनिया
सुकूत मेरा जवाब होगा

किसे ख़बर थी दम-ए-शिकायत
वो इस तरह आब-आब होगा ?

मैं ख़ुद में रह रह के झाँकता हूँ
‘ कभी तो वो बे-नका़ब होगा !

किताब-ए-हस्ती पलट के देखो
कहीं ख़ु्दी का भी बाब होगा

न मुँह से बोलो, न सर से खेलो
अब और क्या इन्क़लाब होगा ?

करम तिरा बे-करां अगर है
मिरा गुनह बे-हिसाब होगा

वफ़ा की उम्मीद और उन से ?
सराब आख़िर सराब होगा !

खड़ा हूँ दर पे तिरे सवाली
ये ज़र्रा कब आफ़्ताब होगा ?

रह-ए-मुहब्बत में जाने कब तक
अदा-ख़िराज-ए-शबाब होगा


हयात-ए-पेचां की उलझनों में
छुपा कहीं मेरा ख़्वाब होगा

रहा अगर हाल यूँ ही ’सरवर’
तो हश्र मेरा ख़राब होगा !






ग़ज़ल 4: बात ऐसी क्या हुई साहिब .....

बात ऐसी हुई है क्या सा्हिब ?
हो गए आप क्यों ख़फ़ा साहिब?

कुछ तो कहिए कहाँ की ये आखिर
लग गई आप को हवा साहिब ?

ख़ामशी और ऐसी खामोशी !
कब मुहब्बत में है रवा साहिब ?

हाय यह कैसी बे-नियाज़ी है ?
रंगे-हस्ती बिखर गया साहिब

क्या कोई मुझसे बद गुमानी है ?
तौबा ,तौबा ! ख़ुदा ! ख़ुदा ! साहिब !

याद है आप को कि मैं हूँ कौन ?
आशना और बावफ़ा ! साहिब !

मुझसे कोई अगर शिकायत है
कीजिए आप बरमला 1 साहिब !

छोड़िए अब मुआफ़ कर दीजिए
कुछ अगर हो कहा-सुना साहिब !

दोस्ती और आश्ती 2 के सिवा
इस जहाँ में रखा है क्या साहिब ?

आप दिल में हैं ,आप आँखों में
मेरी सूरत है आईना सा्हिब !

रह-रवे-राहे-आशानाई हूँ
गरचे 3 हूँ मैं शिकस्ता-पा 4 साहिब !

दर्दमन्दी के और मुहब्बत के
वादे सब कीजिए वफ़ा साहिब !

मैं भी हो जाँऊ आप ही जैसा
मेरे हक़ में करें दुआ साहिब !

बह्र-ए-तज़्दीद-ए-शौक़ 5 ’सरवर ’ को
याद करना है क्या बुरा साहिब ?


ग़ज़ल 5 : नहीं मुझको फ़िक्र-ए-साहिल…

नहीं मुझको फ़िक्र-ए-साहिल ,ग़म-ए-नाख़ुदा नहीं है
लगूँ इश्क़ में किनारे ,ये मिरी दुआ नहीं है !

जो रहीन-ए-ग़म नहीं है ,वो वफ़ा वफ़ा नहीं है
तू है बे-नियाज़ जिस से वो अदा अदा नहीं है !

जो कहूँ तो क्या कहूँ मैं ,जो करूँ तो क्या करूँ मैं?
मैं कहाँ हूँ और क्या हूँ , मुझे ख़ुद पता नहीं है

यही इब्तिदा-ए-ग़म है ,यही इन्तिहा-ए-ग़म है
मिरे दिल में तू ही तू है ,कोई दूसरा नहीं है !

न यूँ बैठ क़ल्ब-ए-मुज़्तर ,ज़रा कुछ तो कह ले,सुन ले
अभी कुछ कहा नहीं है ,अभी कुछ सुना नहीं है !

तिरी याद ज़िन्दगी है ,तिरी याद बन्दगी है
तिरा आसरा नहीं तो ,कोई आसरा नहीं है !

न ही कोई आरज़ू है ,न ही कोई जुस्तजू है
मिरा अर्ज़-ए-ग़म के आगे ,कोई मुद्दआ नहीं है!

मुझे हाल-ए-दिल पे या-रब !जो है इस क़दर तअस्सुफ़
नया मुझ पे हादिसा तो कोई यह हुआ नहीं है !

ग़म-ए-आशिक़ी से डर के कहाँ जा रहे हो "सरवर"?
अभी क्या हुआ है प्यारे ! अभी कुछ हुआ नहीं है









ग़ज़ल 6 : तिरा यूँ फ़ैसला….

तिरा यूँ फ़ैसला ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हो जाए
मुहब्बत नाम है जिसका ,वो फ़ित्ना आम हो जाए !

खुदाया ! दिल मिरा शाइस्ता-ए-आलाम हो जाए
ये दर्द-ए-ज़िन्दगी अपना ही ख़ुद इनआम हो जाए

वफ़ा ना-आश्ना दुनिया ,जफ़ा-पेशा तिरी फ़ितरत
तअज्जुब क्या वफ़ा मेरी अगर इल्ज़ाम हो जाए !

मुझे रुस्वा जो करना है ,सर-ए-बाज़ार-ए-दुनिया कर
मिरा भी काम बन जाए ,तिरा भी नाम हो जाए !

मिरी बेचारगी को याद कर लेना सहर वालो !
मुझे गर इन्तिज़ार-ए-सुब्ह में ही शाम हो जाए

जिसे भी देखिए ,मुझको समझता है वो दीवाना
चलो यूँ ही सही ,दुनिया में कुछ तो नाम हो जाए !

मुहब्बत नाम है शाम-ओ-सहर मर मर के जीने का
फिर इक कोशिश ज़रा सी ऐ दिल-ए-नाकाम ! हो जाए !

न कोई आश्ना अपना ,न कोई राज़दाँ अपना
ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता यूँ ज़िन्दगी दुश्नाम हो जाए !

जहाँ जाता है "सरवर" तुझ पे सब उँगली उठाते हैं
ख़ुदा-ना-ख़्वास्ता ऐसा कोई बदनाम हो जाए !








ग़ज़ल 7: दिल को यूँ बहला रक्खा है....

दिल को यूँ बहला रक्खा है
दर्द का नाम दवा रक्खा है !

आओ प्यार की बातें कर लें
इन बातों में क्या रक्खा है !

झिलमिल-झिलमिल करती आँखें
जैसे एक दिया रक्खा है !

अक़्ल ने अपनी मजबूरी का
थक कर नाम ख़ुदा रक्खा है !

मेरी सूरत देखते क्या हो ?
सामने आईना रक्खा है !

राहे-वफ़ा के हर काँटे पर
दर्द का इक क़तरा रक्खा है

अब आए तो क्या आए हो ?
आह ! यहाँ अब क्या रक्खा है !

अपने दिल में ढूँढो पहले
तुमने खु़द को छुपा रक्खा है

अब भी कुछ है बाक़ी प्यारे?
कौन सा ज़ुल्म उठा रक्खा है !

’सरवर’ कुछ तो मुँह से बोलो
ये क्या रोग लगा रक्खा है ?


ग़ज़ल 8 : जो अता करते हैं…..

जो अता करते हैं वो नाम-ए-ख़ुदा देते हैं
ग़म भी देते हैं तो हिम्मत से सिवा देते हैं

गह रुलाते हैं हमें ,गाह हँसा देते हैं
जाने किस जुर्म की ऐसी वो सज़ा देते हैं?

इस तरह अह्ल-ए-जफ़ा ,दाद-ए-वफ़ा देते हैं
जब भी कम होता है ग़म ,और बढ़ा देते हैं

दाग़-ए-दिल,दाग़-ए-जिगर,दाग़-ए-जुनूँ,दाग़-ए-फ़िराक़
हाथ उठ्ठा तो है अब देखिए क्या देते हैं !

आग दिल की कहीं अश्कों से बुझा करती है ?
ये तो कुछ और लगी दिल की बढ़ा देते हैं

दर्द वो देते हैं ऐसा कि नहीं जिसका इलाज
और फिर दर्द बढ़ाने की दवा देते हैं

उनकी बातों में जो आए तो ये जाना हमने
बात की बात में दीवाना बना देते हैं

लग़्ज़िशें मेरी उन्हें बार हैं ,अल्लाह,अल्लाह !
जो निगाहों से मय-ए-होश-रुबा देते हैं !

हम से उलझे न ज़माना कि हैं बरबाद-ए-जुनूँ
गर्दिश-ए-वक़्त को आईना दिखा देते हैं !

क्यों हो बे-मेह्री-ए-दुनिया से परेशाँ "सरवर"?
लोग तो बात का अफ़्साना बना देते हैं !





ग़ज़ल 9 : जब भी तेरा ख़याल आया है….

जब भी तेरा ख़याल आया है
दिल ने क्या क्या न गुल खिलाया है !

ऐ ग़म-ए-इश्क़ ! तेरी उम्र-दराज़
वक़्त क्या क्या न हम पे आया है

खुद पे क्या क्या न हमने जब्र किया
जब कहीं जा के सब्र आया है !

दूसरा ग़म कहीं उभर आया
एक ग़म गर इधर दबाया है

खेल उल्फ़त का है अजब ही खेल
ख़ुद को खोया तो उसको पाया है !

मुझको नादान इस क़दर न समझ
जान कर यह फ़रेब खाया है !

दिल पे जो इख़्तियार था , न रहा
लब पे तेरा जो ज़िक्र आया है

फिर वही शीशा है ,वही पत्थर
देखिए क्या पयाम आया है !

ख़ुद-बख़ुद आज आँख भर आई
जाने किस का ख़याल आया है !

है शब-ओ-रोज़ आँसुओं से काम
रोग "सरवर" ने क्या लगाया है !





ग़ज़ल 10 : आ भी जा कि…..

आ भी जा कि इस दिल की शाम होने वाली है
दिन तो ढल गया ज्यूँ त्यूँ रात अब सवाली है !

इक निगाह के बदले जान बेच डाली है
इश्क़ करने वालों की हर अदा निराली है !

हर्फ़-ए-आरज़ू लब पर आए भी तो क्या आए
नाबकार ये दुनिया किसकी सुनने वाली है ?

कोई क्या करे तकिया दूसरों की दुनिया पर
हमने ख़ुद ही इक दुनिया ख़्वाब में बसा ली है !

आब आब आईना ख़्वाब ख़्वाब उम्मीदें
रू-ए-ज़िन्दगानी का नक़्श भी ख़याली है !

फ़िक्र-ओ-फ़न की दुनिया पर वक़्त कैसा आया है
फ़न है बे-सुतून यारो ! फ़िक्र ला-उबाली है !

कोई क्या करे शिकवा वक़्त की खुदाई का
बज़्म-ए-मय हुई वीराँ और जाम खाली है

इश्क़ में बता ’सरवर’! क्या मिला तुझे आखिर
तूने ये मुसीबत क्यूँ अपने सर लगा ली है ?











ग़ज़ल 11 : जब नाम तिरा सूझे….

जब नाम तिरा सूझे ,जब ध्यान तिरा आवे
इक ग़म तिरे मजनू की ज़ंजीर हिला जावे !

सब की तो सुनूँ लोहू ये आँख न टपकावे
कीधर से कोई ऐसा दिल और जिगर लावे !

जी को न लगाना तुम ,इक आन किसू से भी
सब हुस्न के धोखे हैं ,सब इश्क़ के बहलावे !

ख़ुद अपना नाविश्ता है ,क्या दोष किसू को दें
यह दिल प-ए-शुनवाई जावे तो कहाँ जावे ?

टुक देख मिरी जानिब बेहाल हूँ गुर्बत में
दीवार ! सो लरज़ाँ है साया ! सो है कतरावे !

दुनिया-ए-दनी में कब होता है कोई अपना
बहलावे से बहलावे , दिखलावे से दिखलावे !

देखो तो ज़रा उसके अन्दाज़-ए-ख़ुदावन्दी
ख़ुद बात बिगाड़े है ,ख़ुद ही मुझे झुठलावे !

सद हैफ़ तुझे ’सरवर’ अब इश्क़ की सूझी है
हर बन्दा-ए-ईमां जब काबे की तरफ जावे

















ग़ज़ल 12: कहाँ से आ गए तुम को...

कहाँ से आ गए तुम को न जाने
बहाने और फ़िर ऐसे बहाने !

कोई यह बात माने या न माने
मुझे धोखा दिया मेरे ख़ुदा ने !

ज़माना क्या बहुत काफी नहीं था ?
जो तुम आए हो मुझको आज़माने !

लबों पर मुह्र-ए-ख़ामोशी लगी है
दिलों में बन्द हैं कितने फ़साने !

न मौत अपनी न अपनी ज़िन्दगी है
मगर हीले वही है सब पुराने !

ज़माने ने लगाई ऐसी ठोकर
हमारे होश आए है ठिकाने !

कहाँ तक तुम करोगे फ़िक्र-ए-दुनिया ?
चले आओ कभी तुम भी मनाने !

हवा-ए-नामुरादी ! तेरे सदक़े
बहार अपनी न अपने आशियाने !

ज़रा देखो कि डर कर बिजलियों से
जला डाले ख़ुद अपने आशियाने !

मिलेंगे एक दिन ’सरवर’ से जाकर
अगर तौफ़ीक़ दी हम को ख़ुदा ने !





ग़ज़ल 13 : खेल इक बन गया….

खेल इक बन गया ज़माने का
तज़्किरा मेरे आने जाने का

ज़िन्दगी ले रही है हमसे हिसाब
क़तरे क़तरे का ,दाने दाने का

क्या बताए वो हाल-ए-दिल अपना
"जिस के दिल में हो ग़म ज़माने का"

हम इधर बे-नियाज़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
शौक़ उधर तुम को आज़माने का

दिल फ़िगारी से जाँ-सुपारी तक
मुख़्तसर है सफ़र दिवाने का

ज़िन्दगी क्या है आ बताऊँ मैं
एक बहाना फ़रेब खाने का

बन गया ग़मगुसार-ए-तन्हाई
ज़िक्र गुजरे हुए ज़माने का

दिल्लगी नाम रख दिया किसने
दिल जलाने का जी से जाने का

हम भी हो आएं उस तरफ ’सरवर’
कोई हीला तो हो ठिकाने का













ग़ज़ल 14 : दिल पे गुज़री है जो…..

दिल पे गुज़री है जो बता ही दे !
दास्ताँ अब उसे सुना ही दे !

मेरे हक़ में दुआ नहीं, न सही
किसी हीले से बददुआ ही दे !

खो न जाए कहीं मिरी पहचान
तू वफ़ा का सिला जफ़ा ही दे !

शामे-फ़ुरक़त की तब सहर होगी
हुस्न जब इश्क़ की गवाही दे

बे-ज़बानी मिरी जुबाँ है अब
सोज़-ए-शब ,आह-ए-सुब्ह्गाही दे

कौन समझाए ,किसको समझाए
अब तो ऐ दिल उसे भुला ही दे

कुछ तो मिल जाए तेरी महफ़िल से
नामुरादी का सिलसिला ही दे !

दिल ज़माने से उठ चला है अब
कब तलक दाद-ए-कमनिगाही दे

अपनी मजबूरियों पे शाकिर हूँ
इतनी तौफ़ीक़ तो इलाही ! दे !

तुझ पे ’सरवर’ कभी ना ये गुज़रे
शायरी दाग़े-कजकुलाही दे !







ग़ज़ल 15 : शाम-ए-अलम क्या शाम थी….

शाम-ए-अलम क्या शाम थी वो और रात थी क्या तन्हाई की !
खून के आँसू ,दर्द की साँसें ,याद किसी हरजाई की !

अह्ल-ए-चमन क्यों फ़िक्र करें ,क्या फ़स्ल-ए-ख़िज़ां ,क्या मौसम-ए-गुल?
प्यार का रिश्ता टूट गया ,क्या फ़िक्र चमन-आराई की !

चैन की नींद के मारे सब थे ,सुनता कौन ग़रीबों की ?
शहर-ए-जफ़ा में कोई न जागा ,हमने लाख दुहाई की

कोई अगर था जुर्म हमारा ,सिर्फ़ मुहब्बत करना था
कुछ तो बतायें बन्दा-परवर !कौन सी हम ने बुराई की ?

हर पल भारी ,हर दम सूना ,चार पहर रोने से काम
तुम क्या समझो ,तुम क्या जानो,बात मिरी तन्हाई की ?

ज़ीस्त के सारे बन्धन ऐ दिल ! धोखा हैं ,सब धोखा हैं!
क्या हसरत तस्कीन-ए-अलम की ,क्या उम्मीद रिहाई की !

उसको पाना एक तरफ़ है ,अपने को ही भूल गए
सदक़े तेरे ऐ ग़म-ए-दौराँ ! तू ने क्या अच्छाई की !

जीता हूँ मैं याद में उसकी ,मौत भी यूँ ही आयेगी
देखना इक दिन मेरे मुक़द्दर ! तू ने अगर रसाई की !

पल में तोला ,पल में रत्ती ,हर अन्दाज़ निराला है
आह! बताऊँ किस दिल से मैं बातें उस हरजाई की

अह्ल-ए-तरब हँसते थे या फिर अहल-ए-जफ़ा के पत्थर थे
दाद मिली तो हमको मिली ये "सरवर"! नग़्मा-सराई की






ग़ज़ल 16 : छोड़िए छोड़िए ये ढंग….

छोड़िए छोड़िए ये ढंग पुराना साहिब !
ढूँढिए आप कोई और बहाना साहिब !

खत्म आख़िर हुआ हस्ती का फ़साना साहिब
आप से सीखे कोई साथ निभाना साहिब !

भूल कर ही सही ख़्वाबों में चले आयें आप
हो गया देखे हुए एक ज़माना साहिब !

हमने हाथों की लकीरों में तुम्हें ढूँढा था
वो भी था इश्क़ का क्या एक ज़माना साहिब !

क्यों गए ,कैसे गए ,ये तो हमें याद नहीं
हाँ मगर याद है वो आप का आना साहिब !

कू-ए-नाकामी-ओ-नौमीदी-ओ-हसरतसंजी
हो गया अब तो यही अपना ठिकाना साहिब !

क़स्रे-उम्मीद ,वो हसरत के हसीं ताज महल
हाय! क्या हो गया वो ख़्वाब सुहाना साहिब ?

रहम आ जाए है दुश्मन को भी इक दिन लेकिन
तुमने सीखा है कहाँ दिल का दुखाना साहिब ?

आते आते ही तो आयेगा हमें सब्र हुज़ूर
खेल ऐसा तो नही दिल का लगाना साहिब !

इसकी बातों में किसी तौर न आना ’सरवर’
दिल तो दीवाना है ,क्या इसका ठिकाना साहिब !




ग़ज़ल 17 : मुहब्बत आशना हो कर….

मुहब्बत आशना हो कर वफ़ा ना-आशना होना
इसी को तो नहीं कहते कहीं काफ़िर-अदा होना ?

ये तपती दोपहर में मुझसे साए का जुदा होना
ज़ियादा इस से क्या होगा भला बे-आसरा होना ?

यकीं आ ही गया हमको तुम्हारी बे-नियाज़ी से
बुज़र्गो से सुना था यूँ तो बन्दों का खु़दा होना !

न जाने कौन सी मन्ज़िल है जो बेगाना-ए-ग़म हूँ
मुझे रास आ गया क्या इश्क़ में बे-दस्त-ओ-पा होना ?

ख़ुदी और बे-ख़ुदी में फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना है
मुहब्बत आशना होना ,मुहब्बत में फ़ना होना !

कोई सीखे तो सीखे आप से तर्ज़े-खुदावन्दी
मिरी बे-चारगी पर आप का यूँ ख़ुद-नुमा होना !

ये सुबह-ओ-शाम की उलझन ये रोज़-ओ-शब के हंगामे
क़ियामत हो गया क़र्ज़े-मुहब्बत का अदा होना

ये सोज़ो-साज़े-उल्फ़त और ये जज़्बो-जुनूँ ’सरवर’
मुबारक हो तुझे शाइस्ता-ए-हर्फ़े-वफ़ा होना

ग़ज़ल 18 : क्या ख़ूब तुम ने….

क्या ख़ूब तुम ने मेरी वफ़ा का सिला दिया !
कुछ और दर्द दिल का ज़रा सा बढ़ा दिया !

क्या पूछते हो मुझको मुहब्बत ने क्या दिया ?
क्या कम है ये कि इक दिल-ए-दर्द-आशना दिया ?

बे-चारगी-ए-शाम-ए-मुहब्बत तो देखिये
इक दिल ही जल रहा था उसे भी बुझा दिया !

दिल ले के ऐसे साफ़ मुकरना? कमाल है !
जा ! तुझको दिल दिया जो तो राह-ए-ख़ुदा दिया

ना-आशना-ए-दर्द थे कल ,अब हैं गर्क़-ए-ग़म
दिल की लगी ने क्या लिया और ले के क्या दिया!

एह्सान किस क़दर है दिल-ए-ना-सबूर पर
जो दर्द भी दिया उसे, वो ला-दवा दिया !

आसूदा हो चला है ग़म-ए-दो जहाँ से दिल
क्या राज़ था जो आप ने उसको बता दिया ?

इक दिल है और शाम-ओ-सहर हसरतों की धूम
इस ग़म ने उसको राह से कैसा लगा दिया !

हर इन्क़िलाब-ए-दहर है इक दिल में मौज़ ज़न
क्या ख़ूब अह्ल-ए-दर्द को ये आईना दिया!

दिल का बुरा नहीं वो गो तक़्दीर है ख़राब
"सरवर"को तुम ने किस लिए आख़िर भुला दिया?






ग़ज़ल 19 : कोई आज बैठा है…

कोई आज बैठा है नज़रें चुराये
तमाशा हो दिल पे जो बिजली गिराये!

उमीदों की दुनिया में गुम हो गया हूँ
ग़म-ए-ज़िन्दगी से कहो लौट जाये !

हयात-ए-फ़सुर्दा को ठुकरा रहा हूँ
कहो दिल से, दुनिया नई इक बसाये

निगाहों की बेताबियाँ ले न डूबें
कहीं राज़-ए-दीवानगी खुल न जाये

वफ़ा क्या ,जफ़ा कैसी ,क्या आशनाई !
किसी शोख़ ने हैं खिलौने बनाये

ठिकाना नहीं उसका दुनिया में कोई
तिरे ग़म का मारा कहाँ सर छुपाये ?

बड़े शौक़ से दास्तां थी सुनाई
वो सुनते रहे ,सुन के फिर मुस्कराये !

तसव्वुर की नै-रंगियाँ ! अल्लाह ,अल्लाह !
वो देखो निगाहें चुराये वो आये

नज़र में ख़ुदा जाने क्या बस गया है?
तसव्वुर में कुछ रक़्स करते हैं साये !

यही सोच कर दिल को "सरवर" संभाला
ज़माने ने किस पर नहीं ज़ुल्म ढाये ?


ग़ज़ल 20 : हम हैं काबे से ही वाबस्ता, न बुतख़ाने से

हम हैं काबे से ही वाबस्ता ,न बुतख़ाने से
जो भी निस्बत है वो है दिल के ही वीराने से

कौन सी बात नई है जो मैं उम्मीद करूँ ?
दिल ने पहले भी कभी माना है समझाने से ?

यूँ रहे शाम-ओ-सहर मह्व-ए-तलाश-ए-काबा
मैकदा में रुके ,निकले जो सनमख़ाने से

आज कुछ ऐसी नई तो नहीं हालत मेरी
आप क्यों बनते हैं अब जान के अनजाने से?

दुख मिरा कोई नया हो तो कहूँ दुनिया से
दर्द का रिश्ता है कब का मिरे अफ़साने से

तुझ को मालूम है क्या हाल था आने से तिरे?
देख क्या हाल है अब तेरे चले जाने से

बे-ख़ुदी इश्क़ में इस दर्जा मुझे रास आई
होश उड़ते हैं मिरे ,होश का नाम आने से

ग़म ही आग़ाज़-ए-वफ़ा ,ग़म ही अन्जाम-ए-जुनूँ
राज़ हम पे ये खुला इश्क़ में ग़म खाने से

रंग बदला नज़र आता है तिरी महफ़िल का
क्या बलानोश कोई उठ गया मैख़ाने से ?

हाल ’सरवर’ का तो पहले भी कहाँ अच्छा था !
हो गये इश्क़ में कुछ और भी दीवाने से




ग़ज़ल 21 : उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी ….

उम्मीद-ओ-आरज़ू मिरी दमसाज़ बन गई
इक सोज़-ए-आशिक़ी बनी,इक साज़ बन गई !

सौदा न कम हुआ सर-ए-मक़्सूद-ए-आशिक़ी
क्या इन्तिहाये-आरज़ू आग़ाज़ बन गई ?

यारों !ये क्या हुआ कि सर-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी?
जो भी ग़ज़ल कही ,शरर-अन्दाज़ बन गई !

कैसी तलाश ,किस की तमन्ना,कहाँ की दीद
ख़ुद मेरी ज़ात मेरे लिये राज़ बन गई !

वा-मांदगी-ए-बाल-ओ-पर-ए-फ़िक्र ?अल-अमां !
हद से बढ़ी तो हिम्मत-ए-परवाज़ बन गई

यूँ आश्ना-ए-कूचा-ए-आवारगी रहे
हर ना-मुरादी शौक़-ए-तग-ओ-ताज़ बन गई

जब मैनें बढ़ के उसकी नज़र को किया सलाम
झुक कर वो फ़ित्ना-ज़ा ग़लत अन्दाज़ बन गई !

"सरवर" ये फ़ैज़-ए-’राज़’ है कि तेरी शायरी
हुस्न-ए-सुख़न से गुलशन-ए-शिराज़ बन गई !















ग़ज़ल 22: न सोज़ आह में मिरी….

न सोज़ आह में मिरी, न साज़ है दिल में
मैं लाऊँ कौन सी सौग़ात तेरी महफ़िल में ?

मैं आईना हूँ कि आईना-रू नहीं मालूम
ये वक़्त आया है इस आशिक़ी की मंज़िल में

ख़ुदी कहूँ कि इसे बेख़ुदी बताओ तुम
मैं अपने आप चला आया कू-ए-क़ातिल में

हमारे ज़ब्त ने रख्खा भरम ख़ुदाई का
ज़बां पे आ ही गई थी जो बात थी दिल में

न अपने दिल की कहो तुम ,न दूसरों की सुनो
अजीब रंग यह देखा तुम्हारी महफ़िल में

हरम के हैं ये शनासा ,न दैर से वाकि़फ़
रखा है क्या भला इन मुफ़्तियान-ए-कामिल में?

यक़ीं गुमान में बदला ,गुमां अक़ीदे में
हमें तो बस ये मिला तेरे ख़ाना-ए-गिल में

फ़राज़-ए-इश्क़ ने इस मर्तबे को पहुँचाया
रहा न फ़र्क़ कोई राह और मंज़िल में

ख़रोश-ए-मौजा-ए-तूफ़ां ने लाख दावत दी
उलझ के रह गये लेकिन फ़रेब-ए-साहिल में

अभी मिला भी न था हसरतों से छुटकारा
उम्मीद डाल गई आ के और मुश्किल में

कोई मुझे यहाँ ’सरवर’ ! कहे न दीवाना
शुमार मुझको करो आशिक़ान-ए-कामिल में !




ग़ज़ल 23 : हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशिक़ी .. ….


हो गई मेराज-ए-इश्क़-ओ-आशक़ी हासिल हमें
पहले दर्द-ए-दिल मिला ,बाद उसके दाग़े-दिल हमें !

बन्दगान-ए-आरज़ू में कर लिया शामिल हमें
आप ने ,शुक्र-ए-ख़ुदा ! समझा किसी क़ाबिल हमें !

कम-निगाही ,तंग दामानी ,वुफ़ूर-ए-आरज़ू
ज़िन्दगी! तेरी तलब में यह हुआ हासिल हमें !

इस क़दर आसूदा-ए-राहे-मुहब्बत हो गये
ढूंढती फिरती है हर सू शोरिश-ए-मंज़िल हमें !

लम्हा-लम्हा लह्ज़ा-लह्ज़ा वो क़रीब आते गये
रफ़्ता-रफ़्ता कर गए ख़ुद आप से ग़ाफ़िल हमें !

बन गया ख़ुद अपना हासिल आलम-ए-ख़ुद रफ़्तगी
देखती ही रह गई दुनिया-ए-आब-ओ-गिल हमें

दीदा-ए-बीना दिल-ए-ख़ुश्काम फ़िक्र-ए-बेनियाज़
अब कोई मुश्किल नज़र आती नहीं मुश्किल हमें !

खु़द को ही तारीख़ दुहराती है जब "सरवर’ तो फिर
क्यों नज़र आया नहीं माज़ी में मुस्तक़्बिल हमें ?

ग़ज़ल 24: माहौल साज़गार…..

माहौल साज़गार ,फ़िज़ा ख़ुशगवार है
ऐ दोस्त! आ भी जा ,तुझे क्या इन्तिज़ार है ?

मेरा गिरेबां, ख़ैर , अगर तार-तार है !
अपनी ख़बर भी कुछ तुझे दामान-ए-यार! है?

एहसान किस क़दर तिरा शहर-ए-निगार ! है
मैं हूँ ,जुनूं है ,लज़्ज़त-ए-संग-ए-हज़ार है

याद-ए-शबाब ,याद-ए-जुनूं ,याद-ए-आरज़ू !
अब है तो ज़िन्दगी का इन्हीं पर मदार है

कम-बख़्त दिल ही मेरा नहीं इख़्तियार में
कहने को दिल का ख़ुद पे बहुत इख़्तियार है !

गुज़री है धूप इस पे हज़ारों ख़िज़ाओं की
शाइस्ता-ए-खिज़ाँ है तो मेरी बहार है !

कहते हैं सब्र को वो तक़ाज़ा -ए-ज़िन्दगी
और ज़िन्दगी को पूछिए तो ख़ुद ही बार है !

किस जी से दिल को मैं भला इल्जाम-ए-इश्क़ दूँ?
वो ख़ुद ही अपनी आदतों पे शर्मसार है

क्या और कोई दिल-जला तुझ को नहीं मिला?
पर्ख़ाश क्यों मुझी से ग़म-ए-रोज़गार ! है ?

यूँ न हो ’सरवर"! ग़म-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त से तंग दिल
नाम-ए-ख़ुदा ये ग़म ही तो इक ग़म-गुसार है !







ग़ज़ल 25 : दामन-ए-तार-तार ये…..

दामन-ए-तार-तार ये,सदक़ा है नोक-ए-ख़ार का
शुक्र-ए-ख़ुदा कि मुझसे कुछ रब्त तो है बहार का!

तेरे मक़ाम-ए-जब्र से मेरे मक़ाम-ए-सब्र तक
सिलसिला-ए-आरज़ू रहा दीदा-ए-अश्कबार का

क़िस्सा-ए-दर्द कह गया लह्ज़ा-ब-लह्ज़ा नौ-ब-नौ
"पर भी क़फ़स से जो गिरा बुल्बुल-ए-बेक़रार का"

मंज़िल-ए-शौक़ मिल गई कार-ए-जुनूं हुआ तमाम
इश्क़ को रास आ गया आज फ़राज़ दार का !

ज़ीस्त की सारी करवटें पल में सिमट के रह गईं
सदियों का तर्जुमान था लम्हा वो इन्तिज़ार का

ज़िक्र-ए-हबीब हो चुका फ़िक्र-ए-ख़ुदा की ख़ैर हो !
चाक रहा वो ही मगर दामन-ए-तार-तार का !

सोज़-ओ-गुदाज़-ए-ज़िन्दगी अपना ख़िराज ले गया
नौहा-कुनां में रह गया हस्ती-ए-कम-अयार का

हुस्न की सर-बुलंदियाँ इश्क़ की पस्तियों से हैं
सोज़-ए-खिज़ां से मोतबर साज़ हुआ बहार का

नाम-ए-ख़ुदा कोई तो है वज़ह-ए-शिकस्त-ए-आरज़ू
यूँ ही तो बेसबब नहीं शिकवा ये रोज़गार का ?

नाम-ओ-नुमूद एक वहम और वुजूद इक ख़याल !
अपने ही आईने में हूँ अक्स मैं हुस्न-ए-यार का !

हर्फ़-ए-ग़लत था मिट गया अपने ही हाथ मर गया
अब क्या ख़बर कि क्या बने "सरवर’-ए-सोगवार का !

ग़ज़ल 26 : दिल दुखाना तिरी….

दिल दुखाना तिरी आदत है भुलाई न गई
आह दुनिया! तिरी अंगुश्त-नुमाई न गई !

अश्क़ बहते रहे और आह दबाई न गई
दास्तान-ए-शब-ए-ग़म फिर भी सुनाई न गई

फिर वो ही ग़म है ,वो ही मैं ,वो ही तन्हाई है
ये लगी दिल की है ऐसी कि बुझाई न गई

रोकते रोकते आ ही गए आँसू मेरे
बात कुछ बिगड़ी फिर ऐसी कि बनाई न गई

लोग तो बात का अफ़्साना बना देते हैं
वरना क्या हम से तिरी बात निभाई न गई?

हुस्न-ए-ख़ुशकार ही बदला न वफ़ा-पेशा इश्क़
ख़ारपाशी न गई ,आब्ला-पायी न गई !

क्या किसी और से कहता मैं कहानी अपनी?
मुझ से ख़ुद को भी तो ऐ दोस्त! सुनाई न गई !

रोज़-ओ-शब हाल पे हँसते रहे दुनिया वाले
फिर भी ऐ दिल ! तिरी आशुफ़्ता-नवाई न गई !

इन्क़िलाब आते रहे देह्र में यूँ तो हर दम
न गई तेरी मगर तर्ज़-ए-ख़ुदाई न गई !

बात अच्छी बुरी सुनता है ज़माने भर की
फिर भी "सरवर"! तिरी ये नग़्मा-सराई न गई





ग़ज़ल 27 : हूँ ख़स्ता-नफ़स….

हूँ ख़स्ता-नफ़स आँख भी भर आई है
क्या दिल के ऊजड़ने की ख़बर आई है?

हर याद पये-ज़ख़्म-ए-जिगर आई है
आना था न यूँ इस को ,मगर आई है !

हर अश्क है आइना उसी सूरत का
नींद ऐसे भी ऐ दीदा-ए-तर! आई है ?

या अश्क गिरा या कोई दिल टूट गया
आहट सी जो हंगाम -ए-सहर आई है !

है पास मुझे नाम का उस के इतना
याद उसकी ब-अन्दाज़-ए-दिगर आई है

पहचान सकूँ ख़ुद को तो है बात बड़ी
आईने में सूरत तो नज़र आई है !

क्या कम थे ये इल्जाम-ए-जुनून-ओ-वहशत?
जो तुहमत-ए-ग़म भी मिरे सर आई है ?

बे-वजह नहीं तेरी शिकायत लब पर
बे-साख़्ता आई है ,अगर आई है

हर नक़्श-ए-क़दम सज्दा-ए-खूँ से रंगीं
किस रंग तिरी राह-गुज़र आई है

ये फ़ैज़ है नाकामी-ओ-ग़म का "सरवर"
शोरीद-सरी तेरी निखार आई है





ग़ज़ल 28 : हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से …

हम हुए गर्दिश-ए-दौरां से परिशां क्या क्या !
क्या था अफ़्साना-ए-जां और थे उन्वां क्या क्या !

हर नफ़स इक नया अफ़्साना सुना कर गुज़रा
दिल पे फिर बीत गयी शाम-ए-ग़रीबां क्या क्या !

तेरे आवारा कहाँ जायें किसे अपना कहें ?
तुझ से उम्मीद थी ऐ शहर-ए-निगारां क्या क्या !

बन्दगी हुस्न की जब से हुई मेराज-ए-इश्क़
सज्दा-ए-कुफ़्र बना हासिल-ए-ईमां क्या क्या !

फ़ासिले और बढ़े मंज़िल-ए- गुमकर्दा के
और हम करते रहे ज़ीस्त के सामां क्या क्या !

धूप और छाँव का वो खेल ! अयाज़न बिल्लाह
रंग देखे तिरे ऐ उम्र-ए-गुरेजां क्या क्या !

हाय ये लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-शिकस्तापायी
हमने ख़ुद ढूँढ लिए अपने बयाबां क्या क्या !

हैफ़ "सरवर"! तुझे अय्याम-ए-ख़िज़ां याद नहीं
इश्क़ में है तुझे उम्मीद-ए-बहारां क्या क्या !

ग़ज़ल 29 : जिगर सुलगता हुआ….

जिगर सुलगता हुआ ,दिल बुझा बुझा होगा
ख़बर न थी सिला-ए-आशिक़ी बुरा होगा !

ख़ुजिस्ता-सर कोई, कोई शिकस्ता-पा होगा !
यह राह-ए-इश्क़ है ,अब इस में और क्या होगा?

इक अश्क-ए-ग़म ही मिरी ज़िन्दगी का हासिल है
जो यह भी हाथ से जाता रहा तो क्या होगा?

हुजूम-ए-यास से दिल घुट गया शब-ए-हिज्राँ
ज़ियादा हश्र में कुछ और क्या बपा होगा ?

लिए तो जाता है मुझको कशां कशां ऐ दिल !
बिखर गया मैं भरी बज़्म में तो क्या होगा ?

ख़बर है गर्म सर-ए-दार मेरे जाने की
सुना है आज मुहब्बत का फ़ैसला होगा !

कुरेद लेता हूँ यादों की राख मैं अक्सर
यहीं कहीं से धुआँ इश्क़ का उठा होगा !

ख़मोशी आप की बे-वज़ह हो नहीं सकती
नज़र ने कुछ कहा और दिल ने कुछ सुना होगा !

यूँ ही तो बज़्म से बे-आबरू नहीं निकला
ज़रूर कुछ निगह-ए-शौक़ ने कहा होगा !

रखा है क्या भला ,क्यों पूछते हो "सरवर" को
दिवाना मर गया,तुमने भी तो सुना होगा !




ग़ज़ल 30 : मरीज़-ए-इश्क़ पर….

मरीज़-ए-इश्क़ पर पल में क़ियामत का गुज़र जाना
"सिरहाने से किसी का उठ के वो पिछले पहर जाना "

किसी को हम-नफ़स समझा, किसी को चारागर जाना
मगर दुनिया को हमने कुछ नहीं जाना ,अगर जाना

मक़ाम-ए-ज़ीस्त को हम ने भला कब मोतबर जाना ?
मिला जो लम्हा-ए-फ़ुर्सत उसे भी मुख़्तसर जाना

इलाही ! हम ग़रीबों की ही क्यों यह आज़माईश है ?
दवा का बे-असर रहना , दुआ का बे-असर जाना

तबस्सुम ज़ेर-ए-लब तेरा,दलील-ए-सुब्ह-ए-जान-ओ-दिल
तेरा नज़रें चुराना ,नब्ज़-ए-हस्ती का ठहर जाना

हक़ीक़त है तो बस इतनी सी है हंगाम-ए-हस्ती की
"यहाँ पर बे-ख़बर रहना ,यहाँ से बे-ख़बर जाना "

सलाम ऐसी मुहब्बत को ,भला ये भी मुहब्बत है !
किसी की याद में जीना ,किसी के ग़म में मर जाना

रह-ए-उल्फ़त में हम से और क्या उम्मीद रखते हो ?
ये क्या कम है कि अपनी ज़ात को गर्द-ए-सफ़र जाना?

तू ख़ुद को लाख समझे बा-कमाल-ओ-बा हुनर "सरवर"
तुझे लेकिन ज़माने ने हमेशा बे-हुनर जाना !








ग़ज़ल 31 : क्या तमाशा देखिए..

क्या तमाशा देखिए तहसील-ए-लाहासिल में है
एक दुनिया का मज़ा दुनिया-ए-आब--ओ-गिल में है

देख ये जज़्ब-ए-मुहब्बत का करिश्मा तो नहीं
कल जो तेरे दिल में था वो आज मेरे दिल में है

मैं भला किस से कहूँ ,क्या क्या कहूँ ,कैसे कहूँ ?
मौत से पहले ही मर जाने की ख़्वाहिश दिल में है

मौज-ओ-शोरिश,इन्क़िलाब-ओ-इज़्तिराब-ओ-रुस्त-ओ-ख़ेज़
है मज़ा साहिल में कब जो दूरी-ए-साहिल में है

झाँक कर दिल में ज़रा यह तो बता दीजिए ,हुज़ूर !
मेरी कि़स्मत का सितारा कौन सी मंज़िल में है?

मुझको भाता ही नहीं इक आँख हुस्न-ए-कायनात
हाँ ! मगर वो जो तिरे रुख़्सार के इक तिल में है !

कर दिया बेगाना-ए-ग़म्हा-ए-दुनिया इश्क़ ने
मुझको आसानी यही तो अपनी इस मुश्किल में है

तेरा माज़ी हाल से दस्त-ओ-गरेबां गर रहा
मैं बताता हूँ जो "सरवर" तेरे मुस्तक़्बिल में है

ग़ज़ल 32 : कहने को यूँ तो…..

कहने को यूँ तो ज़िन्दगी अपनी ख़राब की
लेकिन है बात और ही अह्द-ए-शबाब की !

इज़हार-ए-शौक़ पर ये निगाहें इताब की ?
"जो बात की ख़ुदा की क़सम ! ला-जवाब की"!

याँ जान पर बनी है मुहब्बत के फेर में
और आप को पड़ी है हिसाब-ओ-किताब की

क्या पूछते हो उम्र-ए-गुरेज़ां की कायनात
"दो करवटें थीं आलम-ए-ग़फ़लत में ख़्वाब की"

हम रोज़-ए-हश्र होंगे जो मस्रूफ़-ए-दीद-ए-यार
फ़ुर्सत किसे मिलेगी सवाल-ओ-जवाब की ?

देखा क़रीब से तो वहाँ और रंग था
तारीफ़ सुनते आये थे हम आँ-जनाब की !

उक़्बा की कौन फ़िक्र करे ,मेरे इश्क़ ने
दुनिया ख़राब की ,मेरी दुनिया ख़राब की !

ग़ैरों में ख़्वार है तो वो अपनों में ना-मुराद
क्या पूछते हो "सरवर"-ए-इज़्ज़त-म’आब की !

ग़ज़ल 33 : दिल ही दिल में डरता हूँ….

दिल ही दिल में डरता हूँ कुछ तुझे ना हो जाए
वरना राह-ए-उल्फ़त में जाए जान तो जाए

मेरी कम नसीबी का हाल पूछते क्या हो
जैसे अपने ही घर में राह कोई खो जाए

गर तुम्हे तकल्लुफ़ है मेरे पास आने में
ख़्वाब में चले आओ यूँ ही बात हो जाए

झूठ मुस्करायें क्या आओ मिल के अब रो लें
शायरी हुई अब कुछ गुफ़्तगू भी हो जाए

ये भी कोई जीना है?खाक ऐसे जीने पर
कोई मुझ पे हँसता है ,कोई मुझको रो जाए

मेरे दिल के आँगन में किस क़दर अँधेरा है
काश ! चाँदनी बन कर कोई इसको धो जाए

याद एक धोखा है ,याद का भरोसा क्या
तुम ही खु़द यहाँ आकर ,याद से कहो जाए

देख कर चलो ’सरवर’! जाने कौन उल्फ़त में
फूल तुमको दिखला कर ,ख़ार ही चुभो जाए












ग़ज़ल 34 : इलाही! हो गया क्या…..

इलाही!हो गया क्या आख़िर इस ज़माने को ?
समझ रहा है कहानी मिरे फ़साने को !

ख़याल-ओ-ख़्वाब की बस्ती अजीब बस्ती है
हज़ार बार बसायी ,मगर मिटाने को !

दिलाओ याद पुरानी ,दुखाओ मेरा दिल
कोई तो अपना हो दिल-बस्तगी जताने को !

तिरी तलाश में अपनी ही राह भूल गया
ख़ुदा ही समझे दिल-ए-ज़ार से दिवाने को

न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को

गुमां से आगे जो बढ़ कर यकीन तक पहुँचा
पता चला कि तमाशा है सब दिखाने को

मैं और ग़ैर का रहम-ओ-करम? मआज़ अल्लाह!
उठूँ और ख़ुद ही जला डालूँ आशियाने को

बना बना के तमन्ना मिटाई जाती है
कहाँ से लाऊँ जी ,"सरवर" मैं मुस्कराने को ?

ग़ज़ल 35 : सब मिट गये…..

सब मिट गये, माँगे है मगर तेरी नज़र और
अब लायें कहाँ से बता दिल और ,जिगर और?

कम ख़ाक-ऐ-ग़रीबान-ए-मुहब्बत को न जानो
"उठ्ठेंगे इसी ख़ाक से कल ख़ाक-ब-सर और"

हर ज़र्रे में बस एक ही ज़र्रा नज़र आये
गर चश्म-ए-तमाशा को मिले हुस्न-ए-नज़र और

कब बैठ सके मंज़िल-ए-हस्ती को पहुँच कर
आगे जो बड़ा इस से है वो एक सफ़र और

दुनिया में मुहब्बत की कमी है तो बला से
आबाद-ए-मुहब्बत करें आ ! शाम-ओ-सहर और

क्या तुमको तकल्लुफ़ है मिरी चारागरी में ?
इक तीर-ए-नज़र,तीर-ए-नज़र,तीर-ए-नज़र और

ये क्या कि फ़कत ख़ार ही क़िस्मत में लिखे हैं
ऐ खाना-बरन्दाज़-ए-चमन !कुछ तो इधर और

"सरवर" की कटी किस तरह आख़िर शब-ए-हि्ज्रां ?
कुछ तू ही बता क़िस्स-ए-ग़म दीदा-ए-तर! और !

ग़ज़ल 36 : मुझे ज़िन्दगी पे अपनी….

मुझे ज़िन्दगी पे अपनी अगर इख़्तियार होता
तो मैं राह-ए-आरज़ू में यूँ खराब-ओ-ख़्वार होता ?

तुझे मेरा ,मुझ को तेरा अगर ऐतिबार होता
न तू शर्मसार करता ,न मैं शर्मसार होता !

किया तूने ये गज़ब क्या, दिया खोल राज़-ए-हस्ती?
न मैं आशकार होता ,न तू आशकार होता !

ग़म-ए-आरज़ू में जां पर मिरी यूँ अगर न बनती
कोई और तेरा साथी ,दिल-ए-बेक़रार ! होता ?

सर-ए-बज़्म मेरी जानिब जो तू उठती गाहे गाहे
मुझे तुझ से शिकवा फिर क्यूँ ऐ निगाह-ए-यार!होता?

न मैं तुझसे आश्ना हूँ, न ही ख़ुद से बा-ख़बर हूँ
ये मज़े कहाँ से मिलते अगर होशियार होता ?

मिरी फ़िक्र दिल-कुशा है मिरी बात बे-रिया है
तुझे फिर भी ये गिला है मैं वफ़ा शि’आर होता

है ख़ता यह इश्क़ लेकिन ,ये गुनाह तो नहीं है!
मैं ख़ता से तौबा करता तो गुनहगार होता !

ग़म-ए-आशिक़ी हुआ है ग़म-ए-ज़िन्दगी में शामिल
“ मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता !“

तिरी इक ग़ज़ल भी ’सरवर’ किसी काम की जो होती
तो ज़रूर शायरों में तिरा भी शुमार होता !


ग़ज़ल 37 : दयार-ए-जौर….

दयार-ए-जौर में दिल हार,जान वार आए
ख़ुशा ! कि क़र्ज़-ए-वफ़ा आज हम उतार आए !

उमीद ले के गए ,खो के ऐतिबार आए
रही सही थी जो पूँजी वो आज हार आए !

मैं हो चला हूँ हवा-ए-ख़िज़ाँ से आसूदा
मिरी बला से गुलिस्ताँ में फिर बहार आए !

क़रार लुट गया जिस जा वहाँ का ज़िक्र करो
अजब नहीं यूँ ही शायद मुझे क़रार आए !

उन्हें यह ज़िद कि कभी कोई आरज़ू न करे
वो क्या करे जिसे हर आरज़ू पे प्यार आए ?

वो याद आए क्यों ,ये याद तो नहीं लेकिन
वो याद आए बहुत और बार बार आए !

उन्हें ख़बर भी नहीं और उन की महफ़िल में
हज़ार बार गए हम ,हज़ार बार आए !

ये क्या कि अहल-ए-वफ़ा,शह्र-ए-आरज़ू की तरफ़
दिवानावार गए और बे-क़रार आए ?

जो तेरे ग़म में कटे ,तेरी याद में गुज़रे
बता कि ऐसी शब-ए-ग़म पे क्यों न प्यार आए ?

तिरे मिज़ाज में "सरवर"! ज़माना -साज़ी है !
तिरी वफ़ा का भला कैसे ऐतिबार आए ?





ग़ज़ल 38 : अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे….

अफ़्सोस ख़ुद को ख़ुद पे नुमायां न कर सके
हम ज़िन्दगी को साहब-ए-ईमां न कर सके

राह-ए-तलब में कार-ए-नुमायां न कर सके
अश्क़-ए-जुनूं को आईना-सामां न कर सके

वो इश्क़ क्या जो दर्द का दर्मां न कर सके
वो दर्द क्या जो इश्क़ को आसां न कर सके

हर लम्हा-ए-हयात हिसाब अपना ले गया
"हम ज़िन्दगी में फिर कोई अरमां न कर सके

दामान-ए-आरज़ू की दराज़ी तो देखिए
खु़द से भी ज़िक्र-ए-तंगी-ए-दामां न कर सके

यूँ मुब्तिला-ए-कुफ़्र-ए-तमन्ना रहे कि हम
चाहा हज़ार,दिल को मुसलमां न कर सके

क्यों मुझसे लाग है तुझे ऐ शूरिश-ए-हयात
वो काम कर जो गर्दिश-ए-दौरां न कर सके !

इतनी तो हो मजाल कि ख़ुद को समेट लें
क्या ग़म जो हम तलाफ़ी-ए-हिज्रां न कर सके

इस दर्जा फ़िक्र-ए-शेहर-ए-निगारां में गुम रहे
हम खु़द भी अपनी ज़ात का इर्फ़ां न कर सके

"सरवर" चलो है मैकदा-ए-इश्क़ सामने
मुद्दत हुयी ज़ियारत-ए-इन्सां न कर सके


ग़ज़ल 39: करे क़र्ज़ तेरे अदा कोई…

करे क़र्ज़ तेरे अदा कोई ,ऐ निगाह-ए-यार ! कहाँ तलक ?
सर-ए-तूर-ए-हसरत-ओ-आरज़ू तिरा इन्तिज़ार कहाँ तलक?

तिरे इश्क़ का है अजब सफ़र,न दलील कोई, न राहबर
ये बता चलें इसी राह पर ,तिरे जाँ-निसार कहाँ तलक?

न ख़ुदी में थी मिरी इब्तिदा ,न ही बेख़ुदी मिरी इन्तिहा
कहीं दर्मियान में खो गया ! ये रसन ,ये दार कहाँ तलक?

ये फ़रेब-ए-हसरत-ओ-आरज़ू, ये सराब-ए-मौजा-ए-रंग-ए-बू
तिरा ढूढँना उसे कू-ब-कू ,दिल-ए-बेक़रार ! कहाँ तलक ?

मिरा तंगनाये-ग़ज़ल इधर ,तिरे हुस्न का वो बयाँ उधर
मुझे हर घड़ी है यही तो डर ,कि रहूँ मैं ख़्वार कहाँ तलक ?

हैं रविश-रविश पे तिरे करम ,न हुए कभी न ये होंगे कम !
गुल-ए-सर-बुरीदा क़दम-क़दम ,ग़म-ए-नोक-ए-ख़ार कहाँ तलक?

मिरा दिल अज़ल से है नौहा-गर ,रही खून-फ़िशाँ मिरी चश्म-ए-तर
मिरी ज़ीस्त अपने मज़ार पर ,रहे सोगवार कहाँ तलक ?

मिरी बेबसी तिरी कज-रवी ! मिरी आजिज़ी ,तिरी ख़ुद-सरी !
है उमीद-ए-दाद की हद कोई ? रहूँ बे-वकार कहाँ तलक ?

मिरे जिस्म-ओ-जाँ ,मिरे रोज़-ओ-शब ! मिरे सुब्ह-ओ-शाम तिरे हैं सब !
मिरे हाल-ओ-क़ाल मिरे हैं कब?तिरा इख़्तियार कहाँ तलक ?

है अजीब मेरी ये जुस्तजू ,कभी तू है मैं ,कभी मैं हूँ तू !
यूँ ही ढूँढता फिरूँ चार-सू ,तुझे हुस्न-ए-यार कहाँ तलक ?

रह-ए-शायरी में क़दम बढ़ा ,ज़रा सोच "सरवर"-ए-ख़स्ता-पा
तिरे फ़िक्र-ओ-ख़्वाब-ओ-ख़याल का जो है इन्तिशार ,कहाँ तलक ?

ग़ज़ल 40: आश्ना थे ख़ुद से……

आश्ना थे ख़ुद से ,फिर ना-आश्ना होते गये
हो भला इस इश्क़ का,हम क्या से क्या होते गये!

अश्क़-ए-ग़म बहते रहे और नक़्श-ए-पा होते गये
ज़िन्दगी के कर्ज़ सारे यूँ अदा होते गये

ना-रसाई का फ़साना क्या कहें,किससे कहें ?
मंज़िलें आयीं तो हम बे-दस्त-ओ-पा होते गये

इत्तिफ़ाकन अपनी हालत पर नज़र जब जब पड़ी
हम निगाहों में ख़ुद अपनी बे-रिदा होते गये

रेग्ज़ार-ए-आरज़ू में वक़्त वो हम पर पड़ा
राहज़न चेहरे बदल कर रहनुमा होते गये

अहल-ए-दुनिया की ज़रा देखो करम-फ़र्माइयां
आड़ में ईमां की बन्दे भी खु़दा होते गये

इश्क़ में बेताबियों की लज़्ज़तें मत पूछिए
नाला-हाये आरज़ू हर्फ़-ए-दुआ होते गये

ये कहो "सरवर" तुम्हारी इन्किसारी क्या हुई?
तुम भी दुनिया की तरह क्यों ख़ुद-नुमा होते गये?







ग़ज़ल 41 : रोज़-ओ-शब इस में…..

रोज़-ओ-शब इस में बपा शोर-ए-कि़यामत क्या है ?
ये मिरा दिल है कि आईना-ए-हैरत ? क्या है ?

बात करने में बताओ तुम्हें ज़हमत क्या है?
इक नज़र भी न उठे ,ऐसी भी आफ़त क्या है.?

जान कर तोड़ दिया रिश्ता-ए-दाम-ए-उम्मीद
"आज मुझ पर यह खुला राज़ कि जन्नत क्या है"

नाला-ए-नीम-शबी , आह-ओ-फ़ुग़ां-ए-सेहरी
गर नहीं है यह इबादत, तो इबादत क्या है?

मुझ को आग़ाज़-ए-मुहब्बत से ही फ़ुर्सत कब है?
क्या बताऊँ तुझे अंजाम-ए-मुहब्बत क्या है?

"मीर"-ओ-’इक़्बाल’से,"ग़ालिब"से ये पूछें साहेब!
शायरी चीज़ है क्या ,शे’र की अज़मत क्या है

जब से मैं दीन-ए-मुहब्बत में गिरिफ़्तार हुआ
कुफ़्र-ओ-ईमान की ,वल्लाह ! हक़ीक़त क्या है?

हम ग़रीबों पे जो दस्तूर-ए-ज़बां-बन्दी है
कोई मजबूरी है तेरी कि है आदत ? क्या है?

हर्फ़-ओ-मानी हुए बे-रब्त ,क़लम टूट गया
मंज़िल-ए-शौक़ में ये आलम-ए-वहशत क्या है?

डूब कर ख़ुद में पता ये चला ,हर सू तू है !
हम-नशीं ! तफ़्रक़ा-ए-जल्वत-ओ-ख़ल्वत क्या है?

काम से रखता हूँ काम अपना सदा ही यारो !
मुझको दुनिया से भला फिर ये शिकायत क्या है?

एक पल चैन नहीं "सरवर’-ए-बदनाम तुझे !
कुछ तो मालूम हो आख़िर तिरी नियत क्या है?


ग़ज़ल 42 : कभी तुझ पे मेरी निगाह है…..

कभी तुझ पे मेरी निगाह है कभी खु़द से मुझको ख़िताब है
कोई ये बताये है राज़ क्या यहाँ कौन ज़ेर-ए-निक़ाब है

मुझे तू ही काश ! बता सके ये करम है या कि इताब है
कभी रंग-ए-इश्वा-ओ-नाज़ है ,कभी बे-नियाज़ी का बाब है

ज़रा सोच तो सही नासिहा ! भला तुझ में मुझ में है फ़र्क़ क्या !
मुझे फ़िक्र-ए-शाम-ए-फ़िराक़ है ,तुझे ख़ौफ़-ए-रोज़-ए-हिसाब है

कभी इस तरह ,कभी उस तरह मिरा इम्तिहान हुआ किया
इसी फ़िक्र में कटी ज़िन्दगी कि ये कैसा मेरा निसाब है ?

ये जहां हो या वो जहान हो कोई इन को ले के करेगा क्या
ये है रेग्ज़ार-ए-गुरेज़पा ,तो वो कारवान-ए-सराब है

तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी! तब-ओ-ताब-ए-शेवा-ए-दिलबरी!
"न पयाम है ,न सलाम है ,न सवाल है,न जवाब है"

कभी इस तरफ़ भी उठा नज़र ,तुझे अपनी भी है कोई ख़बर?
नहीं चश्म-ए-तर ,है यह आईना !मिरा दिल नहीं ये किताब है!

कोई लाख तुझ को कहे बुरा न ग़मीं हो "सरवर"-ए-बे-नवा
ये फ़राज़-ए-दार-ए-अना ही तो तिरे हक़ में कार-ए-सवाब है !











ग़ज़ल 43 : रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई…..

रह-ए-वफ़ा में ग़म-ए-जुदाई कभी मिरा हम-क़दम न होता
तुझे ख़ुदा का जो ख़ौफ़ होता तो ख़्वार में ख़म-ब-ख़म न होता

मुझे सर-ए-बज़्म-ए-ग़ैर तेरी निगाह-ए-कम-आशना ने मारा
जो मुझ पे अह्सान यूँ न होता , तिरा ये अह्सान कम न होता

तुम्हारी इस बन्दगी के सदक़े मिरा मुक़द्दर उरूज पर है
जो इश्क़ जल्वा-कुशा न होता तो दिल मिरा जाम-ए-जम न होता

बुरा हो इस ज़िन्दगी का जिस ने हमें किया ख़्वार आशिक़ी में
:जो हम न होते तो दिल न होता जो दिल न होता तो ग़म न होता:

निगाह-ए-लुत्फ़-ओ-करम जो करते हमारी जानिब भी गाहे-गाहे
तो हश्र-ए-उल्फ़त में हमको शिकवा कभी तुम्हारी क़सम न होता

कभी तो हंगाम-ए-ज़िन्दगी में निगाह मिलती सलाम होता
तुझे भी दुनिया की दाद मिलती मुझे भी मरने का ग़म न होता

भला मैं इस तरह क्यों भटकता फ़िसाद-ए-हुस्न-ए-नज़र के हाथों
अगर तिरी राह-ए-जुस्तजू में फ़रेब-ए-दैर-ओ-हरम न होता

ग़मों के हाथों ही आज "सरवर" है इश्क़ में बा-मुराद-ए-मंज़िल
सितम बा शक्ल-ए-करम जो होता करम बा शक्ले-सितम न होता












ग़ज़ल 44 : तमाम दुनिया में ढूँढ आया…..

तमाम दुनिया में ढूँढ आया मैं ग़म-शुदा ज़िन्दगी की सूरत
मिली तो अक्सर हयात-ए-मुज़्तर,मगर मिली अजनबी की सूरत

सबक़ तो सीखा हम अहल-ए-दिल ने ये इज्ज़ की सर-बलन्दियों से
कि एक सजदा है काफ़ी लेकिन हो बन्दगी बन्दगी की सूरत

अजीब दस्तूर-ए-आशिक़ी है न मैं ही मैं हूँ न तुम ही तुम हो
न दोस्ती दोस्ती की सूरत ,न दुश्मनी दुश्मनी की सूरत

ख़बर, तसव्वुर,ख़याल ,ईमां ,गुमां, यक़ीं,फ़िक्र ,इल्म,हिकमत
मक़ाम-ए-ख़ुद-आगाही के आगे ,सवाद-ए-कम-आगाही की सूरत

बरहना-पा, आब्ला-गज़ीदा, शिकस्ता-दिल ,पैरहन- दरीदा
मक़ाम-ए-सिद्रा पे सोचता हूँ कोई है परदा-दरी की सूरत

मिला सर-ए-राह ख़ुद से जब मैं अजीब ही अपना हाल देखा
किसी की आंखें, किसी का चेहरा ,नज़र किसी की,किसी की सूरत

न मुझसे पूछो कि मैं कहाँ हूँ ,मुझे तो कुछ भी पता नहीं है
कि अपनी सूरत में आ रही है नज़र मुझे हर किसी की सूरत

ये सच है दुनिया में और भी हैं जमील-ओ-ख़ुशरू हसीन-ओ-दिलबर
पसंद आयी मगर हमें तो जनाब-ए-मन ! आप ही की सूरत

न जाने कब से खड़ा था ’सरवर’ इक आस्तीन-ए-उम्मीद थामे
वो निकला ख़ुद से ही ग़ैर हाज़िर, हुई अजब हाज़िरी की सूरत








ग़ज़ल 45 : ज़माना एक ज़ालिम है…….

ज़माना एक ज़ालिम है किसी का हो नहीं सकता
किसी का ज़िक्र क्या यह ख़ुद ही अपना हो नही सकता

यह है मोजिज़-नुमायी उसकी या है हुस्न-ए-ज़न मेरा?
"कि उसका हो के फिर कोई किसी का हो नहीं सकता"

नज़र तो फ़िर नज़र है ढूँढ लेगी लाख पर्दों में
छुपो तुम लाख लेकिन ख़ुद से पर्दा हो नहीं सकता

मक़ाम-ए-नाउम्मीदी ज़ीस्त का उन्वान क्यों ठहरे?
मुहब्बत में जो तुम चाहो तो क्या क्या हो नहीं सकता

उधर वो नाज़ कि "देखे हैं तुम से लाख दीवाने !"
इधर ये ज़ोम कि कोई भी हम सा हो नहीं सकता!

कहाँ यह उम्र-ए-दो-रोज़ा कहाँ दुनिया की आवेज़िश
हुआ अब तक मगर अब यूँ गुज़ारा हो नहीं सकता

मुहब्बत और शै है ,दिल सितानी और ही शै है
तकल्लुफ़ बर-तरफ़! अब ये गवारा हो नहीं सकता

कोई अच्छा कहे "सरवर" तुझे या वो बुरा जाने
नज़र में ख़ुद की जो है उस से अच्छा हो नहीं सकता













ग़ज़ल 46 : रह-ए-उल्फ़त निहायत……..

रह-ए-उल्फ़त निहायत मुख़्तसर मालूम होती है
हमें हर राह तेरी रह-गुज़र मालूम होती है

हमें यह ज़िन्दगी इक दर्द-ए-सर मालूम होती है
न होना चाहिए ऐसा मगर मालूम होती है

मुसीबत में इक ऐसा वक़्त भी आता है इन्सां पर
ज़रा सी छाँव भी अपना ही घर मालूम होती है

न हम बदले, न दिल बदला ,न रंग-ए-आशिक़ी बदला
मगर बदली हुई तेरी नज़र मालूम होती है

कभी तुम भी किसी से दिल लगा कर देखते साहेब!
ज़रा सी चोट भी इक उम्र भर मालूम होती है

हर आहट पर मिरी साँसों की हर लय जाग उठती है
शब-ए-उम्मीद यादों का सफ़र मालूम होती है

हमें दुनिया भला क्या राह से अपनी लगायेगी
वो अपने आप से ही बेख़बर मालूम होती है

तिरे शे’रों पे इतनी दाद "सरवर" सख़्त हैरत है !
हमें ये साज़िश-ए-अह्ल-ए-हुनर मालूम होती है



ग़ज़ल 47 : नज़र मिली, बज़्म-ए-शौक़ जागी…….

नज़र मिली, बज़्म-ए-शौक़ जागी, पयाम अन्दर पयाम निकला
मगर वो इक लम्हा-ए-गुरेज़ां , न सुब्ह आया ,न शाम निकला

" बड़े तकल्लुफ़ से आया साग़र ,बड़े तजम्मुल से जाम निकला"
हमारा जौक़-ए-मय-ए-वफ़ा ही रह-ए-मुहब्बत में ख़ाम निकला

वफ़ा है क्या, दोस्ती कहाँ की,हमारी तक़दीर है तो ये है
किया जो साये पे अपने तकिया तो वो भी मेह्शर-ख़िराम निकला

मैं आब्ला-पा , दरीदा-दामां खड़ा था सेहरा-ए- जूस्तजू में
मगर दलील-ए-सफ़र ये मेरा खु़द-आगही का क़ियाम निकला

न आह-ए-लर्ज़ां, न अश्क-ए-हिरमां, बदन-दरीदा ,न सर-ख़मीदा
तिरी गली से ज़रूर गुज़रा , मगर ब-सद-इहतराम निकला

इक एक हर्फ़-ए-उमीद-ओ-हसरत ग़ज़ल की सूरत में ढल गया है
मिरा सलीक़ा दम-ए-जुदाई खिलाफ़-ए-दस्तूर-ए-आम निकला

कभी यकीं पर गुमां का धोखा ,कभी गुमां पर यकीं की तुहमत
हमें खुश आयी ये सादा-लौही ,हमारा हर तरह काम निकला

हज़ार सोचा ,हज़ार समझा ,मगर ज़रा कुछ न काम आया
क़दम क़दम मंज़िल-ए-ख़िरद में ,मिरा जुनूं से ही काम निकला

गुमां ये था बज़्म-ए-बेख़ुदी में ,बहक न जाये कहीं तू "सरवर"
मगर तिरा नश्शा-ए-ख़ुदी तो हरीफ़-ए-मीना-ओ-जाम निकला







ग़ज़ल 48 : नफ़स नफ़स सर-ब-सर……

नफ़स नफ़स सर-ब-सर परेशां,नज़र नज़र इज़्तिराब में है
मगर वो तस्वीर-ए-हुस्न-ए-मानी निक़ाब में थी निक़ाब में है

कोई बताये कि फ़र्क़ कैसा ये आशिक़ी के निसाब में है
मिरे सवालों में कब था आख़िर वो सब जो उन के जवाब में है

मज़ा न ज़ुह्द-ओ-सवाब में है ,न लुत्फ़ जाम-ओ-शराब में है
"ग़म-ए-जुदाई से जान मेरी अजब तरह के अज़ाब में है "

न मुँह से बोलो,न सर से खेलो,अजीब दस्तूर है तुम्हारा
सलाम लेने का ये तरीक़ा तुम्हीं कहो किस किताब में है?

मियान-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल-ओ-हसरत तलाश के लाख मरहले थे
रह-ए-मुहब्बत में कामयाबी बताइये किस हिसाब में है ?

कशाकश-ए-रंज-ए-हिज्र, तौबा! किसे तमन्ना-ए-वस्ल है अब?
ज़हे मुहब्बत,मिरा तख़ैय्युल जो ख़ुद शिनासी के बाब में है

तमाशा-ए-बूद-ओ-हस्त अस्ल-ए-हयात है तो हयात क्या है?
जो बात अबतक हिजाब में थी ,वो बात अब भी हिजाब में है

सहर-गज़ीदा, चिराग़-ए-शब था, भड़क भड़क के जो बुझ गया है
वुजूद, मानिन्द-ए-दूद मेरा तवाफ़-ए-बज़्म-ए-ख़राब में है

ज़माना बेज़ार तुझ से "सरवर",तू आप बेज़ार ज़िन्दगी से
कोई ख़राबी तो है यक़ीनन जो तुझ से ख़ाना-ख़राब में है









ग़ज़ल 49 : जिस क़दर शिकवे थे…….

जिस क़दर शिकवे थे सब हर्फ़-ए-दुआ होने लगे
हम किसी की आरज़ू में क्या से क्या होने लगे

बेकसी ने बे-ज़बानी को ज़बां क्या बख़्श दी
जो न कह सकते थे अश्कों से अदा होने लगे

हम ज़माने की सुख़न-फ़हमी का शिकवा क्या करें?
जब ज़रा सी बात पर तुम भी ख़फ़ा होने लगे

रंग-ए-महफ़िल देख कर दुनिया ने नज़रें फेर लीं
आशना जितने भी थे ना-आशना होने लगे

हर क़दम पर मंज़िलें कतरा के दूर होने लगीं
राज़हाये ज़िन्दगी यूँ हम पे वा होने लगे

सर-बुरीदा ,ख़स्ता-सामां ,दिल-शिकस्ता,जां-ब-लब
आशिक़ी में सुर्ख़रू नाम-ए-ख़ुदा होने लगे

आगही ने जब दिखाई राह-ए-इर्फ़ान-ए-हबीब
बुत थे जितने दिल में सब कि़ब्ला-नुमा होने लगे

आशिक़ी की ख़ैर हो "सरवर" कि अब इस शहर में
वक़्त वो आया है बन्दे भी ख़ुदा होने लगे !

ग़ज़ल 50 : हम ने सब कुछ…..

हम ने सब कुछ ही मुहब्बत में तिरे नाम किया
और जो बच गया वो वक़्फ़-ए-मय-ओ-जाम किया

खु़द को जैसे भी हुआ खूगर-ए-आलाम किया
फ़ैसला इस तरह तेरा दिल-ए-नाकाम ! किया

शाम को सुब्ह किया ,सुब्ह को फिर शाम किया
हम ने मर मर के ग़म-ए-ज़ीस्त का इकराम किया

कब रहा एक जगह गर्दिश-ए-दौरां को क़ियाम
साक़ी-ए-वक़्त को किसने है भला राम किया ?

एक लम्हा भी नहीं सज्दा-ए-ग़म से खाली
कैसे काफ़िर ने हमें बन्दा-ए-इस्लाम किया

आप का पास-ए-मुहब्बत कोई देखे तो सही
हम को रुस्वा किया और वो भी सर-ए-आम किया

ऐसे बे-फ़ैज़ थे कुछ हाथ न आया अपने
शिकवा-ए-दर्द किया ,शिकवा-ए-अय्याम किया

राह गुम-कर्दा हुए शहर-ए-यक़ीं में जिस दिन
दिल-ए-दीवाना को सर-गश्ता-ए-औहाम किया

बज़्म-ए-अहबाब में "सरवर" ये ग़ज़ल लाए हो?
और इस पर यह समझते हो बड़ा काम किया !








ग़ज़ल 51 : हसरत-ओ-यास को……

हसरत-ओ-यास को रुख़सत किया इकराम के साथ
इश्क़ में अपनी तो गुज़री बड़ी आराम के साथ

लज़्ज़त-ए-कुफ़्र मिले लज़्ज़ते-ए-इस्लाम के साथ
नाम आ जाये अगर मेरा तिरे नाम के साथ


ऐतबार आये भी तो किस तरह आये तुझ पर ?
रंग-ए-ज़ुन्नार भी है तुहमत-ए-इहराम के साथ

पास आते गये वो ख़्वाब में लहज़ा लहज़ा
दूर होती गई मंज़िल मिरे हर गाम के साथ

वाह री ख़ूबी-ए-क़िस्मत कि सर-ए-शाम-ए-उम्मीद
उसका पैग़ाम जो आया भी तो इल्ज़ाम के साथ

आओ हम मिल के नई राह-ए-मुहब्बत ढूँढे
कब तलक कोई निबाहे राविश-ए-आम के साथ

हसरत-ओ-आरज़ू ,उम्मीद-ओ-तमन्ना ,अरमां
लाख आज़ार हैं मेरी सहर-ओ-शाम के साथ

क्या ही आते हैं मज़े दोनो जहां के "सरवर"
गर्दिश-ए-जाम भी है गर्दिश-ए-अय्याम के साथ










ग़ज़ल 52 : आफ़त हो, मुसीबत हो…..

आफ़त हो, मुसीबत हो, क़ियामत हो, बला हो
मालूम तो हो मेरे लिये कौन हो ,क्या हो ?

कहने को तो बातें है बहुत शाम-ए-मुहब्बत
क्या कीजिए जब दिल ही यह मजबूर-ए-अना हो

मेराज-ए-मुहब्बत है यह मेराज-ए-वफ़ा है
मैं हूँ ,तिरी बस याद हो और हर्फ़-ए-दुआ हो

मैं अपने ही अल्फ़ाज़ में गुमकर्दा-ए-मंज़िल
तुम जान-ए-ग़ज़ल,जान-ए-सुख़न,हुस्न-ए-अदा हो

मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ ,गुनहगार नहीं हूँ
तुम कौन सी अक़्लीम-ए-मुहब्बत के ख़ुदा हो?

हो जायेगा बतलाओ गज़ब कौन सा ऐसा ?
गर मंज़िल-ए-उल्फ़त में शिकायत भी रवा हो

गुमराही-ए-सद-राह-ए-मुहब्बत मुझे ख़ुश है
हाँ शर्त ये है तू ही मिरा राह-नुमा हो

दुनिया से जो उम्मीद-ए-वफ़ा तुम को है "सरवर"
इतना तो बताओ भला तुम चाहते क्या हो?

ग़ज़ल 53 : कूचा कूचा नगर नगर…

कूचा कूचा नगर नगर देखा
ख़ुद में देखा उसे अगर देखा!

किस्सा-ए-ज़ीस्त मुख़्तसर देखा
जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा

दर ही देखा न तूने घर देखा
ज़िन्दगी तुझको खूब कर देखा

कोई हसरत रही न उसके बाद
उस को हसरत से इक नज़र देखा

हम को दैर-ओ-हरम से क्या निस्बत
उस को दिल में ही जल्वा-गर देखा

दर्द में ,रंज-ओ-ग़म में,हिरमां में
आप को ख़ूब दर-ब-दर देखा

हाल-ए-दिल दीदनी मिरा कब था?
देखता कैसे? हाँ ! मगर देखा

सच कहो बज़्म-ए-शे’र में तुम ने
कोई "सरवर" सा बे-हुनर देखा?

ग़ज़ल 54 : हयात मौत का ही…..

हयात मौत का ही एक शाख़साना लगे
हमें ख़ुद अपनी हक़ीक़त भी इक फ़साना लगे

गुमान, आगही तू, मैं ,उमीद, नौमीदी
हमें सभी ग़म-ए-हस्ती का कारख़ाना लगे

जो दर्द है वो तिरे कर्ब की निशानी है
जो साँस है वो तिरा याद का बहाना लगे

परे है सरहद-ए-इद्राक से वुजूद तिरा
अगर मैं सोचूँ तुझे ,मुझको इक ज़माना लगे

ये मेरी आरज़ूमन्दी !ये मेरी महरूमी
ख़ुदा ख़ुदा तो रहे पर ख़ुदा ख़ुदा ना लगे

खु़दी ने खोल दिए राज़-ए-बेख़ुदी हम पर
क़दम क़दम पे हमें तेरा आस्ताना लगे

वो तेरी याद की ख़ुश्बू ,उमीद की आहट
समंद-ए-शौक़ को गोया कि ताज़याना लगे

ज़माना तुझ को ख़िरदमंद लाख गर्दाने
मगर हमें तो ऐ "सरवर"! तू इक दिवाना लगे

ग़ज़ल 55 : ख़ुशा-वक़्ते कि….

ख़ुशा-वक़्ते कि वादे कर के तुम हम से मुकरते थे
"यही रातें थीं और बातें थीं वो दिन क्या गुजरते थे"!

रहीन-ए-सद-निगाह-ए-शौक़ थी सब जल्वा-आराई
नज़र पड़ती थी जितनी उन पे वो उतना निखरते थे

क़यामत-ख़ेज़ वो मंज़र भी इन आँखों ने देखा है
क़यामत हाथ मलती थी जिधर से वो गुज़रते थे

यही है जिसकी चाहत में रहे गुमकर्दा-ए-मंज़िल?
यही दुनिया है सब जिसके लिए बेमौत मरते थे?

हिसार-ए-ज़ात से बाहर अजब इक और आलम था
तिरे जल्वे सिमटते थे ,तिरे जल्वे बिखरते थे

अना की किर्चियां बिखरी पड़ी थी राह-ए-आख़िर में
ये आईने तो हमने ज़िन्दगी भर ख़ूब बरते थे

हमारी बेबसी यह है कि अब हैं खु़द से बेगाना
कभी वो दिन थे अपने आप पर हम फ़क्र करते थे

किसी के ख़ौफ़-ओ-ग़म का ज़िक्र क्या हैजान-ए-फ़ुर्क़त में
वो आलम था कि हम ख़ुद अपने ही साये से डरते थे

हुई मुद्दत कि हम हैं और शाम-ए-दर्द-ए-तन्हाई
कहाँ हैं सब वो चारागर हमारा दम जो भरते थे

ख़ुदा रख़्खे सलामत तेरा जज़्ब-ए-आशिक़ी "सरवर"
सुना है वो भरी महफ़िल में तुझको याद करते थे

ग़ज़ल 56: अजीब कैफ़-ओ-सुकूँ…..

अजीब कैफ़-ओ-सुकूँ तेरी जुस्तजू में था
गुमां-नवर्द मैं सेहरा-ए-आरज़ू में था

न शायरी में,न ही जाम-ए-मुश्कबू में था
वो लुत्फ़ जो तिरे अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू में था

इक उम्र मैं रहा सदफ़िक्र-ए-ला-इलाह में गुम
मगर अयाँ तू मिरी एक ज़र्ब-ए-हू में था

रहा हमेशा मुहब्बत की आबरू बन कर
वो इज़्तिराब जो मेरी रग-ए-गुलू में था

तिरे ख़याल ने कब फ़ुर्सत-ए-नज़ारा दी
हज़ार कहने को दुनिया-ए-रंग-ओ-बू में था

जहां में किसको मिला शौक़-ओ-जज़्बा-ए-मंसूर
ये इहितिराम-ए-मुहब्बत किसू किसू में था

खु़द अपने आप से बेगाना कर गया मुझको
सुरूर-ओ-कैफ़-ए-ख़ुदी जो तिरे सुबू में था

नमाज़-ए-इश्क़ में "सरवर" कहाँ पे जा पहुँचा
वो काबा-रू था जहाँ मंज़िल-ए-वुज़ू में था !






ग़ज़ल 57 : लरज़ रहा है दिल…..

लरज़ रहा है दिल-ए-सोगवार आँखों में
खटक रही है शब-ए-इन्तिज़ार आँखों में !

ज़रा न फ़र्क़ ख़ुदी और बेख़ुदी में रहा
न जाने क्या था तिरी मयगुसार आँखों में

ये दर्द-ए-दिल नहीं,है बज़गस्त-ए-महरुमी
ये अश्क-ए-ग़म नहीं, है ज़िक्र-ए-यार आँखों में

सुरूर-ए-ज़ीस्त से खाली नहीं ख़िज़ां हर्गिज़
मगर है शर्त रची हो बहार आँखों में

ज़रा ज़रा से मिरे राज़ खोल देता है
छुपा है कौन मिरा राज़दार आँखों में ?

मक़ाम-ए-शौक़ की सरमस्तियां, अरे तौबा !
सुरूर-ए-आशिक़ी दिल में ख़ुमार आँखों में

क़दम क़दम पे तिरी याद गुल खिलाती है
यह किसने भर दिया रंग-ए-बहार आँखों में?

नबर्द-आज़मा दुनिया से क्या हुआ "सरवर"
कुछ और बढ़ गया अपना वकार आँखों में !



ग़ज़ल 58 : इक रिवायत के सिवा……

इक रिवायत के सिवा कुछ न था तक़दीर के पास
क़िब्ला-रू हो गये हम यूँ बुत-ए-तदबीर के पास !

क्या हदीस-ए-ग़म-ए-दिल,कौन सा क़ुरान-ए-वफ़ा?
एक तावील नहीं साहेब-ए-तफ़सीर के पास !

दिल के आईने में क्या जाने नज़र क्या आया ?
मुद्दतों बैठे रहे हम तिरी तस्वीर के पास !

अश्क-ए-नौमीदी-ओ-हसरत ही मुक़द्दर ठहरा
एक तोहफ़ा था यही हर्फ़-ए-गुलूगीर के पास !

गोशा-ए-सब्र-ओ-सुकूं ?हैफ़ ! न दीवार न दर!
थक के मैं बैठा रहा हसरत-ए-तामीर के पास !

हम हक़ी़कत के पुजारी थे ,गुमां-गश्त न थे
और सिर्फ़ ख़्वाब थे उस ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर के पास!

क्या कहें गुज़री है क्या इश्क़ में अह्ल-ए-दिल पर
रह्न-ए-शमशीर कभी और कभी ज़ंजीर के पास!

तू ने ऐ जान-ए-ग़ज़ल! ये भी कभी सोचा है ?
क़ाफ़िए क्यों न रहे "सरवर"-ए-दिलगीर के पास !


ग़ज़ल 59 : हिकायत-ए-ख़लिश….

हिकायत-ए-ख़लिश-ए-जान-ए-बेक़रार न पूछ !
शुमार-ए-शाम-ओ-सहर ऐ निगाह-ए-यार! न पूछ !

हमारे दिल की ख़बर हम से बार बार न पूछ !
जो सच कहेंगे तो गुज़रेगा ना-गवार ! न पूछ !

जो आ रही है शब-ए-ग़म वो कैसे गुज़रेगी ?
गुज़र चुकी जो मिरी शाम-ए-इन्तिज़ार, न पूछ!

शराब-ओ-शे’र-ओ-ग़ज़ल,नग़्मा-ओ-रबाब-ओ-चंग
रम-ए-नफ़स का ये सामान-ए-ऐतिबार! न पूछ !

मैं अपने सामने हूँ और नज़र नहीं आता !
गु़बार-ए-ख़ातिर-ए-हस्ती-ए-नाबकार न पूछ !

कहाँ कहाँ न मिला हम को दाग़-ए-रुस्वाई ?
दराज़-दस्ती-ए-दामान-ए-तार-तार न पूछ !

शिकस्तगी ही त’आरुफ़ को मेरे काफी है
मेरे नुमूद-ओ-हक़ीक़त ,मिरा दयार न पूछ !

हम अह्ल-ए-दिल हैं समझते हैं राज़-ए-हस्त-ओ-बूद
खिज़ां के भेस में रंगीनी-ए-बहार ? न पूछ !

मक़ाम-ए-शौक़ में किन मंज़िलों से गुज़रा है !
ये तेरा अपना ही "सरवर"!ये जाँनिसार ! न पूछ

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ग़ज़ल 60 : सुना है अर्बाब-ए-अक़्ल-ओ-दानिश…

सुना है अर्बाब-ए-अक़्ल-ओ-दानिश हमें यूँ दाद-ए-कमाल देंगे
"जुनूँ के दामन से फूल चुन कर ख़िरद के दामन में डाल देंगे!"

ज़रा बतायें कि आप कब तक फ़रेब-ए-हुस्न-ओ-जमाल देंगे
सुकूं के बदले में तुहफ़ा-ए-ग़म, क़रार ले के मलाल देंगे ?

हम अपने दिल से ख़याल-ए-दैर-ओ-हरम को ऐसे निकाल देंगे
तमाम अज्ज़ा-ए-कुफ़्र-ओ-इमां बस एक सजदे में ढाल देंगे !

जिन्हें तमीज़-ए-वफ़ा नहीं है, जिन्हें शऊर-ए-जुनूँ नहीं है
भला वो किस तरह राह-ए-ग़म में हिसाब-ए-हिज्र-ओ-विसाल देंगे?

ज़बां की रंगीं-नवाईयों से ,बयां की जल्वा-तराज़ियों से
निगार-ए-उर्दू को हर घड़ी हम खिराज-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल देंगे!

तुम्हें है क्यों अश्क-ए-ग़म पे हैरत ,यही तो होता है आशिक़ी में
सवाल अगर दिल-फ़िगार होगा,जवाब भी हस्ब-ए-हाल देंगे !

खुमार-ए-बादा,ख़िराम-ए-आहू,निगाह-ए-नर्गिस,नवा-ए-बुलबुल
किसी ने इन का पता जो पूछा तो हम तुम्हारी मिसाल देंगे !

वो एक लम्हा दम-ए-जुदाई जो ज़ीस्त का ऐतिबार ठहरा
उस एक लम्हे ने जो दिया है ,कहाँ ये सब माह-ओ-साल देंगे?

न इनकी बातों में आना "सरवर"!ये अह्ल-ए-दुनिया हैं फ़ित्ना-परवर
हज़ार बातें बना बना कर तुम्हें ये दम भर में टाल देंगे !








ग़ज़ल 61 : हमें ख़ुदा की क़सम!....

हमें ख़ुदा की क़सम! याद आइय़ाँ क्या क्या !
जफ़ा के भेस में वो आशनाइय़ाँ क्या क्या !

उम्मीद-ओ-आरज़ू जी में बसाइय़ाँ क्या क्या
फ़रेब इश्क़ में दानिस्ता ख़ाइयाँ क्या क्या !

ख़ुदी से कुछ न मिला, बे-ख़ुदी से कुछ न मिला
हरीम-ए-शौक़ में ज़ेहमत उठाइयाँ क्या क्या !

इन्हीं से याद है ताज़ा गये ज़माने की
हमें अज़ीज़ हैं तेरी जुदाइयाँ क्या क्या !

मियान-ए-काबा-ओ-बुतख़ाना गुम खड़े थे हम
नज़र जो ख़ुद पे पड़ी तुझ को पाइय़ाँ क्या क्या !

न दीद की कोई सूरत , न वस्ल की उम्मीद
फिर उस पे हैं मिरी बे-दस्त-ओ-पाइयाँ क्या क्या!

फ़रेब-ए-दश्त-ए-तमन्ना में मुझ को छोड़ गयीं
ख़याल-ओ-ख़्वाब की मेहशर नुमाइयाँ क्या क्या !

न तेरी दोस्ती अच्छी , न दुश्मनी अच्छी
बना रख़्ख़ी हैं ये तू ने ख़ुदाइयाँ क्या क्या !

मक़ाम-ए-इश्क़ में ’सरवर,तुझे भी ले डूबीं
तिरी अना ये तिरी ख़ुद-नुमाइयाँ क्या क्या !






ग़ज़ल 62 : दिल ये कहता है……

दिल ये कहता है तवाफ़-ए-कू-ए-जानाना सही !
शर्त है सज्दा वफ़ा का,सो वो रिन्दाना सही !

जी नही भरता सुने जाते हैं सब शाम-ओ-सहर
ज़िन्दगी टूटे हुए ख़्वाबों का अफ़्साना सही !

रिश्त-ए-उल्फ़त संवर जाना कमाल-ए-इश्क़ है
गोश-ए-मस्जिद नहीं तो बाब-ए-मयख़ाना सही !

पासदारी आप को दुनिया की है गर इस क़दर
आर क्यों है मुझ से मिलने में ,हरीफ़ाना सही !

बुझ गई बाद-ए-मुख़ालिफ़ से जो शम्म-ए-अन्जुमन
फिर दलील-ए-राह-ए-मंज़िल ख़ाक-ए-परवाना सही !

इश्क़ मे फ़र्क़-ए-मरातिब ?अल-अमान-ओ-अल-हफ़ीज़!
रंग-ए-शाहाना सही ,तर्ज़-ए-गदायाना सही !

अस्ल--ए-इमां क्या है ?याद-ए-यार है और कुछ नहीं !
मस्जिद-ओ-मिम्बर सही ,या कोई बुतख़ाना सही !

’सरवर’-ए-नाकाम अपने काम में हुशयार है
आप दीवाना समझते हैं तो दीवाना सही !

ग़ज़ल 63 : जब जब वो सर……..

जब जब वो सर-ए-तूर-ए-तमन्ना नज़र आया
मैं कैसे कहूँ वो मुझे क्या क्या नज़र आया !

हस्ती के दर-ओ-बस्त का मारा नज़र आया
हर शख़्स तमाशा ही तमाशा नज़र आया !

देखा जो ज़माने को कभी अच्छी नज़र से
जो भी नज़र आया हमें अच्छा नज़र आया !

काबे में जो देखा वही बुतख़ाने में पाया
जैसा वो मिरे दिल में था वैसा नज़र आया

औरों पे बढ़े संग-ए-मलामत जो लिए हम
हर चेहरे में क्यों अपना ही चेहरा नज़र आया?

क्या ये भी मुहब्बत के तक़ाज़ों में है शामिल ?
दर्या में नज़र आया तो सहरा नज़र आया !

ढूँढा ही नहीं हमने तुम्हारा कोई हमसर
हाँ !तुम कहो ,तुम को कोई हम सा नज़र आया?

यूँ और बहुत ऐब हैं ’सरवर’ में वलेकिन
कमबख़्त मुहब्बत में तो यकता नज़र आया !











ग़ज़ल 64 : सौदा ख़ुदी का था….

सौदा ख़ुदी का था न हमें बेख़ुदी का था
सारा फ़रेब कशमकश-ए-आगही का था

मेरी वफ़ा का था , न तिरी बेरुख़ी का था
क़िस्सा जो था वो फ़िक़्र की बेचारगी का था

हम मुतमइन थे हो के शरीक-ए-ग़म-ए-जहां
और उन को ग़म जो था वो हमारी ख़ुशी का था!

आलाम-ए-रोज़गार से ग़म-हाये-इश्क़ तक
था मरहला जो ज़ीस्त में हैरानगी का था !

यूँ भी हुआ है दोस्त ! सर-ए-बज़्म-ए-आरज़ू
एहसास था अगर तो वह ख़ुद में कमी का था !

फ़िक्र-ए-विसाल ,याद-ए-बुतां ,रंज-ए-आरज़ू
जैसे इजारा ज़ात पे मेरी सभी का था !

सुनता जो कोई ’गोश-ए-हक़ीक़त-नियोश’ से
महफ़िल में शोर-ए-हश्र मिरी ख़ामशी का था

इक ऐतिबार-ए-जौर था सो वो भी उठ गया
कब ऐतिबार हम को तिरी दोस्ती का था

जिस अजनबी ने हम को तमाशा बना दिया
क्यों दिल को ऐतिबार उसी अजनबी का था?

तू इम्तिहान-ए-मंज़िल-ए-हैरानगी न पूछ
किस को दिमाग अपनी ही पर्दा-दरी का था?

राह-ए-वफ़ा में लुट गया आख़िर वो किस तरह
"सरवर" जो ज़ोम आप को फ़र्ज़ानगी का था ?

ग़ज़ल 65 : याद भी ख़्वाब हुई ….

याद भी ख़्वाब हुई ,याद वो आते क्यों हैं?
रोज़-ओ-शब इक नया अफ़्साना सुनाते क्यों हैं?

रोज़ मर मर के भला यूँ जिए जाते क्यों हैं?
ज़िन्दगी ! हम तिरे एहसान उठाते क्यों हैं ?

सबको मालूम है दुनिया की हक़ीक़त फिर भी
क़िस्स-ए-दर्द वो दुनिया को सुनाते क्यों हैं ?

कौन समझाये ,ये समझाने की बातें कब हैं?
किस लिए ख़्वार हुए होश से जाते क्यों हैं !

रंज-ओ-आलाम का , रुसवाई-ए-नाकामी का
लोग हर बात का अफ़्साना बनाते क्यों हैं ?

उस पे दुनिया की ये अंगुश्त-नुमाई ? तौबा !
पूछिए हम से कि यूँ जान से जाते क्यों हैं?

बन्दगी से हमें कब आप की इन्कार रहा ?
बात-बे-बात फिर अहसान जताते क्यों हैं ?

इश्क़ तो ठीक है लेकिन ये ख़यानत "सरवर"?
जान जब अपनी नहीं ,जान लुटाते क्यों हैं ?










ग़ज़ल 66 : तेरा गुज़र इधर….

तेरा गुज़र इधर जो ब-रंग-ए-सबा हुआ
आई बहार , याद का पत्ता हरा हुआ

हर साँस आरज़ूओं का इक सिलसिला हुआ
इस तरह क़िस्मतों का मिरी फ़ैसला हुआ

अच्छा हुआ कि आप ने मुझ को भुला दिया
था ज़िन्दगी में इक यही कांटा लगा हुआ

तुम आये थे तो एक ज़माना था मेरे साथ
तुम क्या जुदा हुए मिरा साया जुदा हुआ

नब्ज़-ए-हयात,शम-ए-उम्मीद,आरज़ू-ए-वस्ल
अन्जाम सब का आशिक़ी में एक सा हुआ

अपने ही आँसुओं पे मुझे आ गई हँसी
कल रात मेरे साथ अजब माजरा हुआ !

करता है तेरा साया-ए-दीवार भी गुरेज़
मुझ सा न देह्र में कोई बे-आसरा हुआ

अन्जान जानबूझ के बन जाइए ,हुज़ूर !
रह जाए किस लिए यही तस्मा लगा हुआ ?

जो गम मिले ज़माने से सारे सिवा मिले
जो दिल मिला तो वो था ग़मों से भरा हुआ

जोश-ओ-ख़रोश है न वो पहले से वलवले
बैठे बिठाये आप को "सरवर" ये क्या हुआ ?




ग़ज़ल 67 : ग़म-ए-ज़िन्दगी ! तिरा…

ग़म-ए-ज़िन्दगी ! तिरा शुक्रिया ,तिरे फ़ैज़ ही से ये हाल है
वो ही सुब्ह-ओ-शाम की उलझने, वो ही रात दिन का वबाल है

तिरा ग़म है हासिल-ए-ज़िन्दगी, न ग़लत समझ मिरे अश्क़ को
तिरे ग़म से जान चुराऊँ मैं , कहाँ ऐसी मेरी मजाल है ?

न चमन में बू-ए-समन रही, न ही रंग-ए-लाला-ओ-गुल रहा
तू ख़फ़ा ख़फ़ा सा है वाक़ई ,कि ये सिर्फ़ मेरा ख़याल है ?

इसे कैसे जीना कहें अगर ,गहे आह-ए-दिल,गहे अश्क़-ए-शब
वोही रात दिन की मुसीबतें ,वो ही माह है,वो ही साल है !

कोई काश मुझको बता सके ,रह-ओ-रस्म-ए-इश्क़ की उलझनें
तू कहे तो बात पते की है ,मैं कहूँ तो ख़ाम ख़याल है !

मैं ग़मों से हूँ जो यूँ मुतमइन ,तू बुरा न माने तो ये कहूँ
तिरे हुस्न का नहीं फ़ैज़ कुछ ,मिरी आशिक़ी का कमाल है !

है ये आग कैसी लगी हुई .मिरे दिल को आज हुआ है क्या ?
जो है ग़म तो है ग़म-ए-आरज़ू , है अगर तो फ़िक्र-ए-विसाल है

ज़हे इश्क़-ए- अहमद-ए-मुस्तफ़ा ,नहीं फ़िक्र-ए-रोज़-ए-जज़ा मुझे
यही आरज़ूओं की दीद है ,यही ज़िन्दगी का मआल है

ये तुझे बता कि हुआ है क्या ,पये इश्क़ ’सरवर’-ए-ग़मज़दा?
न वो मस्तियां ,न वो शोख़ियां ,न वो हाल है ,न वो क़ाल है !







ग़ज़ल 68 : सरवर" ! जिगर के दाग़….

"सरवर" ! जिगर के दाग़ नुमायां न कीजिए
यूँ कीजिए कि शिकवा-ए-जानां न कीजिए !

हसरत ,मलाल,ख़्वाहिश-ओ-अरमां न कीजिए
ये कीजिए तो होश का सामां न कीजिए !

हर रोज़ रोज़-ए-हश्र है हर शाम शाम-ए-ग़म
इतना तो इस ग़रीब पर एहसां न कीजिए!

ऐसा न हो कि अश्क-ए-नदामत निकल पड़ें
इस साअत-ए-विसाल को अर्ज़ां न कीजिए !

बढ़ कर वसूल कीजिए ज़माने से हर हिसाब
या फिर शिकायत-ए-ग़म-ए-दौरां न कीजिए

दिल को संभाल रखिए ,अमानत है इश्क़ की
लुट जाए गर तो फिर कोई अरमां न कीजिए

मानिन्द-ए-बू-ए-दोस्त मैं ,अपने वुजूद में
हूँ इक ख़याल मुझको परेशां न कीजिए १

हम बन्दगान-ए-इश्क़ हैं अपनी मिसाल आप
हम से सवाल-ओ-पुर्सिश-ए-इस्याँ न कीजिए

इर्फ़ाने-इश्क़ आप हाय इर्फ़ान-ए-ला-इलाह !
इस से ज़ियादा ख़्वाहिश-ए-ईमां न कीजिए

"सरवर" को ख़ामशी ही पयाम-ए-हयात है
कुछ कह के ज़िन्दगी को पशेमां न कीजिए





ग़ज़ल 69 : हुस्न इर्फ़ान-ए-हक़ीक़त…..

हुस्न इर्फ़ान-ए-हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं !
इश्क़ इक हर्फ़-ए-अक़ीदत के सिवा कुछ भी नहीं !

जिसका आग़ाज़, न अन्जाम ,न उन्वान कोई
ज़िन्दगी ऐसी हिकायत के सिवा कुछ भी नहीं !

लोग तो बात का अफ़्साना बना देते हैं
वरना रंजिश भी इनायत के सिवा कुछ भी नहीं !

रोज़-ओ-शब,शाम-ओ-सहर.एक ही ग़म ,एक ही याद
हर नफ़स रोज़-ए-क़ियामत के सिवा कुछ भी नहीं !

लोग क्यों ज़िक्र-ए-क़यामत से डरा करते हैं ?
वो तिरे पर्तव-ए-क़ामत के सिवा कुछ भी नहीं !

इब्तिदा हर्फ़-ए-तमन्ना की बड़ी आफ़त थी
इन्तिहा अश्क-ए-निदामत के सिवा कुछ भी नहीं

कोई यक-रंगी-ए-सद-रंग-ए-ज़माना देखे
देह्र इक जल्वा-ए-वहदत के सिवा कुछ भी नहीं !

रंग-ए-गुल,रंग-ए-शफ़क़,रंग-ए-हिना,रंग-ए-बहार
इक तिरे रंग-ए-शबाहत के सिवा कुछ भी नहीं

सांस लेते हुए डरता हूँ कि यारो ! हर सांस
मुझ को इक संग-ए-मलामत के सिवा कुछ भी नहीं

दोस्तो ! अर्ज़ जो करता हूँ तो सच करता हूँ
दोस्ती हुस्न-ए-अदावत के सिवा कुछ भी नहीं !

तेरा अफ़्साना-ए-ग़म-हाये-ज़माना "सरवर"
एक फ़र्सूदा रिवायत के सिवा कुछ भी नहीं !

ग़ज़ल 70 : रंग-ओ-ख़ुश्बू ,शबाब-ओ-रानाई…

रंग-ओ-ख़ुश्बू ,शबाब-ओ-रानाई
हो गई आप से शनासाई !

हो तो किस किस की हो पज़ीराई
नाज़, अन्दाज़, हुस्न ,ज़ेबाई !

सुब्ह मजबूर ,शाम को महरूम
बेकसी लाई तो कहाँ लाई !

लोग जिसको बहार कहते हैं
वो किसी शोख़ की है अँगड़ाई!

हम भी मजबूर, आप भी मजबूर
आह ! दुनिया की कार-फ़र्माई

दामन-ए-सब्र छूट छूट गया
चोट वो दिल ने इश्क़ में खाई

ख़स्तगान-ए-क़फ़स को क्या मतलब
कब गई और कब बहार आई

पास-ए-ग़म,पास-ए-दर्द,पास-ए-वफ़ा
गर न होते तो होती रुसवाई

खुद शनासी ,ख़ुदा शनासी है
बात मेरी समझ में अब आई !

आज तक राज़-ए-ज़िन्दगी न खुला
हम तमाशा हैं या तमाशाई ?

बात बेबात आँख भर आना
ये भी है सूरत-ए-शकेबाई

उन से उम्मीद-ए-दोस्ती "सरवर"?
आप क्या हो गये हैं सौदाई ?

ग़ज़ल 71: आबला-पा घूमता हूँ ….

आबला-पा घूमता हूँ वादी-ए-बेदाद में
दर्द किसने रख दिया है इश्क़ की रूदाद में ?

जान सी इक पड़ गई है शिकवा-ए-सैय्याद में
है दुआ का रंग शामिल नाला-ओ-फ़रियाद में

वो मुलाक़ातें!,वो बातें! अल-अमान-ओ-अल-हफ़ीज़ !
हाँ ! मगर है बात ही कुछ और तेरी याद में !

हर गिरी दीवार में दुनिया नई आबाद है
झाँक कर तो देखिए मेरे दिल-ए-नाशाद में !

"चाँद को छूने का क़िस्सा ,फूल पी लेने की बात"!
एक उलझन और निकली इश्क़ की उफ़्ताद में !

देखिए तो अह्ल-ए-दुनिया की करम-फ़रमाईयाँ !
चन्द पत्थर आए हैं मेरी ग़ज़ल की दाद में !

ये तमाशा-गाह-ए-हस्ती! ये हुजूम-ए-आरज़ू
शोर इक बरपा है कैसा,शहर-ए-बे-बुनियाद में ?

क्या किसी से कम है "सरवर"’अपनी रूदाद-ए-अलम?
बात ऐसी कौन सी है क़ैस और फ़रहाद में ?



ग़ज़ल 72 : हर आन मुहब्बत में…

हर आन मुहब्बत में मिरी जाँ पे बनी है
दुनिया है कि यह खेल खड़ी देख रही है !

ग़म ही मुझे कोई है ,न ही कोई ख़ुशी है
ये कैसे दो-राहे पे हयात अपनी खड़ी है ?

मैं और तग़ाफ़ुल की शिकायत करूँ ?तौबा !
कब आप ने पहले मिरी रूदाद सुनी है ?

अफ़्सोस ! सुख़न-साज़ी-ए-अर्बाब-ए-सियासत !
अब शहर-ए-मुहब्बत में जो है रीत नई है !

हर ज़ख़्म पे उम्मीद नई दिल में हो पैदा
आइन-ए-वफ़ा है तो यही शीशागरी है

तस्कीन-ए-अलम,ज़िक्र-ए-वफ़ा,वादा-ए-फ़र्दा !
कुछ भी नहीं अल्फ़ाज़ की इक जादूगरी है

दुनिया के ग़मों ने मुझे रख़्ख़ा न कहीं का
अब आह-ए-सहर है,न गम-ए-नीमशबी है

गो सच है कि उम्मीद पे कायम है ये दुनिया
जो कल था तिरा आज भी अन्दाज़ वही है

हँसती है जो दुनिया मिरी आशुफ़्ता-सरी पर
सौ होश से भारी मिरी ये बे-ख़बरी है

बेहतर है कि ख़ामोश रहें हज़रत-ए-"सरवर"!
अश’आर नये हैं न कोई बात नई है



ग़ज़ल 73: कशाकश-ए-ग़म-ए-हस्ती …

कशाकश-ए-ग़म-ए-हस्ती सताए , क्या कहिए !
फिर उस पे सोज़-ए-दुरूँ दिल जलाए,क्या कहिए !

ख़ुलूस-ओ-लुत्फ़ को ढूँढा किए ज़माने में
चले जहां से वहीं लौट आए ,क्या कहिए !

वो पास रह के रहे दूर इक करिश्मा है
वो दूर रह के मगर पास आए ,क्या कहिए !

संभल संभल के चले सू-ए-दैर गो मयकश
क़दम कुछ ऐसे मगर लड़खड़ाए , क्या कहिए !

कोई हरीफ़-ए-ग़म-ए-ज़िन्दगी नहीं देखा
हरीफ़ यूँ तो बहोत आज़माए ,क्या कहिए !

यूँ आफ़्ताब छुपा शाम-ए-ग़म की चादर में
कि जैसे नब्ज़ कोई डूब जाए , क्या कहिए !

हमें ये ज़िद कि सवाल-ए-तलब नहीं करते
उन्हें ये ज़िद कि ये खाली ही जाए,क्या कहिए !

कोई बताए कि अन्दाज़-ए-हुस्न-ए-ख़्वाबीदा
भुलाने पर भी अगर याद आए ,क्या कहिए ?

लरज़ रहा है गुहर-ताब दिल सर-ए-मिज़गाँ
सितारा-ए-सहरी झिलमिलाये ,क्या कहिए !

हिकायत-ए-हरम-ओ-दैर खूब है ’सरवर"
मगर ये शाम-ओ-सहर हाय-हाय ! क्या कहिए !




ग़ज़ल 74 : यूँ आफ़्ताब-ए-शौक़…..

यूँ आफ़्ताब-ए-शौक़ शब-ए-ग़म में ढल गया
जैसे शबाब दूर से बच कर निकल गया !

दिल सोज़-ए-आशिक़ी से सर-ए-शाम जल गया
था ज़िन्दगी में एक ही कांटा ,निकल गया

तुम आए थे तो एक ज़माना था साज़गार
तुम क्या गए कि एक ज़माना बदल गया !

हालत पे मिरी अह्ल-ए-ख़िरद इस क़दर हँसे
जितना था उनका शौक़-ए-तमाशा निकल गया !

नादां थे हम जो ख़्वाहिश-ए-दुनिया किया किए
नादां था दिल जो देख के दुनिया मचल गया

हम शेह्र-ए-आरज़ू में भटकते फिरा किए
दिल था हमारा एक ही नादाँ ,बहल गया !

क्यों हर सवाल मेरा सवाल-ए-ग़लत हुआ
क्यों हर जवाब तेरा सियासत में ढल गया?

:’ऎ दोस्त ! आ भी जा कि मैं तस्दीक़ कर सकूँ"
सब कह रहे हैं मौसम-ए-हिज्राँ बदल गया !

"सरवर"! तिरे ख़ुलूस-ओ-मुहब्बत का क्या करें?
सिक्का ही इक नया सर-ए-बाज़ार चल गया !







ग़ज़ल 75 : दिल ने दुहराए….

दिल ने दुहराए कितने अफ़साने
याद क्या आ गया ख़ुदा जाने

बज़्म-ए-उम्मीद कब की ख़्वाब हुई
अब कहाँ शमा ,कैसे परवाने ?

सुब्ह के अश्क, शाम की आँसू
इश्क़ के देखिए तो नज़राने !

एक याद आई ,एक याद गई
दिल में हैं सैकड़ों परी-ख़ाने

किस को भूलूँ ,किसे मैं याद रखूँ
सारे चेहरे हैं जाने पहचाने

याद क्या आ गया सितम कोई?
आप बैठे हैं यूँ जो अनजाने ?

पहले अपनी नज़र को समझाओ
फिर मेरे दिल को आना समझाने !

हाँ ! करो और तुम मुझे रुस्वा !
ग़ालिबन कम किया है दुनिया ने ?

हाये मजबूरियाँ मुहब्बत की
कोई क्या जाने ,कोई क्या माने !

बेकसी ,बेबसी, सुबुक-हाली
चुन रहा हूँ नसीब के दाने !

आरज़ू क्या है और क्या है उमीद
"सरवर" नामुराद क्या जाने ?

ग़ज़ल 76 : सुब्ह-ए-इशरत देख कर….

सुब्ह-ए-इशरत देख कर ,शाम-ए-गरीबाँ देख कर
मह्व-ए-हैरत हूँ मैं रंग-ए-बज़्म-ए-इम्काँ देख कर

हर क़दम पर इक तक़ाज़ा, हर घड़ी हसरत नई
मैं चला था राह-ओ-रस्म-ए-देह्र आसाँ देख कर

कोई बतलाए कि यह मुश्किल मुहब्बत तो नहीं?
हम परेशाँ हो गए ,उन को परिशाँ देख कर !

इस क़दर है ख़ाक से निस्बत मेरी तक़्दीर को
याद आ जाता है घर अपना ,बयाबाँ देख कर

उठ गई रस्म-ए-मुहब्बत ,सर्द है बाज़ार-ए-इश्क़
दिल तड़पता है मता-ए-ग़म को अर्ज़ां देख कर

ज़िन्दगी गुज़री किसी की आरज़ू करते हुए
और अब हैराँ हूँ मैं यह शहर-ए-वीराँ देख कर

बात क्या है ?याद क्यों आता है अंजाम-ए-हयात?
मौसम-ए-गुल देख कर ,रंग-ए-बहाराँ देख कर

क्या मिला "सरवर" तुम्हें इस पारसाई के तुफ़ैल ?
उस को काफ़िर सोच कर ,ख़ुद को मुसलमाँ देख कर !

ग़ज़ल 77 : पास है तुम को अगर…

पास है तुम को अगर पिछली शनासाई का
आओ दुहरायें फ़साना ग़म-ए-तन्हाई का !

हुस्न को शौक़ है गर अन्जुमन-आराई का
आए देखे वो तमाशा मिरी रुस्वाई का !

ज़िन्दगी! मैं तुझे मर मर कर जिए जाता हूँ
कुछ तो इनाम दे इस काफ़िया-पैमाई का !

ख़ुद-परस्ती का यह इल्जाम? अयाज़न-बिल्लाह !
मैं तो इक अक्स हूँ उस जल्वा-ए-यकताई का !

क्यों तुझे शाम-ओ-सहर ख़दशा-ए-बदनामी है ?
कौन सुनता है फ़साना तिरे सौदाई का !

गिरया-ए-नीम-शबी ,आह-ए-ग़म-ए-सुब्हगही !
और क्या ज़िक्र हो उस पैकर-ए-ज़ेबाई का ?

जान से जा के मिली फ़िक्र-ए-दो-आलम से निजात
शुक्रिया आप के एजाज़-ए-मसीहाई का !

क्या समझते हो तुम अपने को बताओ "सरवर"?
दावा आख़िर है ये किस बात पे दानाई का ?



ग़ज़ल 78 ; क्यों हर क़दम पे….

क्यों हर क़दम पे लाख तकल्लुफ़ जताइए ?
अब आए हैं तो आइए ,तशरीफ़ लाइए !

जी में है ज़िन्दगी के मज़े यूँ उठाइए
बर्बाद-ए-इश्क़ होइए ,घर को जलाइए !

नज़रें मिलाइए ,मिरे दिल में समाइए
बन्दा-नवाज़ ! फ़र्क़-ए-मन-ओ-तू मिटाइए !

है मस्लिहत यही कि हक़ीक़त छुपाइए
दुनिया को दूसरी कोई सूरत दिखाइए

ये क्या कि याद कर के हमें भूल जाइए ?
और भूल के भी फिर न कभी याद आइए

इक बार और मेरा कहा मान जाइए
दिल आप ही मिलेंगे ,नज़र तो मिलाइए !

जिस को सलाम-ए-लुत्फ़-ओ-मुहब्बत न हो क़ुबूल
उस को सलाम कीजिए और लौट जाइए !

क्या ज़िन्दगी ने पहले किसी का दिया है साथ?
’सरवर" दिए उमीद के फिर क्यों जलाइए ?




ग़ज़ल 79 : ग़म-ए-फ़ुर्क़त की लौ…..

ग़म-ए-फ़ुर्क़त की लौ हर लम्हे मद्धम होती जाती है
:इलाही क्या मिरी दीवानगी कम होती जाती है ?

मुहब्बत इम्तिहान-ए-दर्द-ए-पैहम होती जाती है
घुटा जाता है दिल और चश्म-ए-ग़म नम होती जाती है

तुम्हारी हम से जो वाबस्तगी कम होती जाती है
ज़ह-ए-क़िस्मत ! ख़ुशी शाइस्ता-ए-ग़म होती जाती है

हयात-ए-बेवफ़ा ,ज़ुल्फ़-ए-परिशां ,शाम-ए-तन्हाई
मैं सुलझाता हूँ जितना और बरहम होती जाती है

न जाने मोजिज़ा है इश्क़ का या सिर्फ़ धोखा है
वो जितने दूर हों बेगानगी कम होती जाती है

लगा कर आग खु़द अह्ल-ए-चमन आँखें दिखाते हैं
रिवायत इक नयी गुलशन में क़ायम होती जाती है

न तुम बदले ,न हम बदले,न तर्ज़-ए-आशिक़ी बदला
शनासाई ग़मों से दिल की बाहम होती जाती है

शिकायत, वो भी शह्र-ए-जौर में ?तौबा ,मुआज़ल्लाह !
हमारी बेकसी खु़द अपना मरहम होती जाती है

इसी का नाम है मेराज-ए-इश्क़-ए-मुस्तफ़ा ऐ दिल !
कि हर शै नज़्र-ए-सरकार-ए-दो-आलम होती जाती है

कोई काफ़िर-अदा शे’र-ए-मुजस्सम क्या हुआ "सरवर"!
हमारी शायरी हुस्न-ए-मुजस्सम होती जाती है !



ग़ज़ल 80 : पूछिए मिरे दिल से…..

पूछिए मिरे दिल से इन्तिज़ार का आलम
बेबसी उमीदों की ,याद-ए-यार का आलम !

दिल तो एक नादां है कोई क्या सुने इस की?
कू-ए-ग़म में ढूँढे है ये क़रार का आलम !

शीशा-ए-अना मेरा ,संग-ए-आस्तां तेरा
याद है मुझे अबतक अपनी हार का आलम !

सब पलट गई बाज़ी कारगाह-ए-हस्ती की
आगही में पिन्हां था इन्तिशार का आलम !

ज़ख़्म मेरी क़िस्मत थे दर्द भी मुक़्ददर था
और मुझ पे तारी था ख़्वाब-ज़ार का आलम !

बेख़ुदी ने नज़रों से वो हिजाब उठायें हैं
हर तरफ़ फ़िरोज़ां है हुस्न-ए-यार का आलम !

याद के दरीचों से बू-ए-यार आई है !
मौसम-ए-ख़िज़ां में है इक बहार का आलम !

मंज़िल-ए-मुहब्बत में काम आ गया "सरवर"
पूछते हो क्या अपने जाँ-निसार का आलम !



ग़ज़ल 81 : निगाह ख़ुद पे जो डाली…

निगाह ख़ुद पे जो डाली तो ये हुआ मालूम
न इब्तिदा की ख़बर है ,न इन्तिहा मालूम

सिवाय इसके नहीं कुछ भी बा-ख़ुदा मालूम
हमें तो अपना भी यारो नहीं पता मालूम !

मआल-ए-शिकवा-ए-ग़म ,हासिल-ए-दुआ मालूम!
ग़रीब-ए-शहर-ए-वफ़ा का इलाज ? ला-मालूम!

ख़िज़ां-गज़ीदा बहारों ने क्या कहा तुझ से ?
मआल-ए-गुल नहीं क्या तुझ को ऐ सबा ! मालूम ?

इक उम्र कट गई उमीद-ओ-ना-मुरादी में
अब इन्तिज़ार है कल का ,सो वो भी क्या मालूम !

बस इतना जानते हैं दिल किसी को दे आए
भले-बुरे की ख़बर क्या हमें भला मालूम ?

नहीं है कुछ भी तलाश-ए-सुकून से हासिल
मक़ाम-ए-इश्क़ की हम को है हर अदा मालूम !

भले ही तुमको न हो अपने आशिक़ों का पता
हमें है हाल तुम्हारा ज़रा ज़रा मालूम !

पड़ा है सोच में "सरवर" मक़ाम-ए-इब्रत में
ये क्या ग़ज़ब है कि मालूम भी है ना-मालूम !



ग़ज़ल 82 : गो चाक रहा….

गो चाक रहा इस दिल-ए-नाशाद का दामन
हाथों से नहीं छूटा तिरी याद का दामन !

इक उम्र चलाया किया वो तेशा-ए-उल्फ़त
प्यासा ही रहा हसरत-ए-फ़रहाद का दामन !

अल्लाह रे बुतख़ाना-ए-हस्ती की ख़राबी !
छूटा न कभी इस सितम-ईजाद का दामन

सुनवाई मिरी कब हुई उस बज़्म-ए-तरब में
फैलाया बहुत गिर्या-ओ-फ़रयाद का दामन !

उलझा तो किसी तरह सुलझने में न आया
दामान-ए-तसव्वुर से तिरी याद का दामन !

आज़ाद रहा हल्क़-ए-हर-दाम-ए-ख़िरद से
मैं और मिरे इश्क़-ए-ख़ुदा-दाद का दामन !

"ऐ ख़ाना-बर-अन्दाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी!"
है दाद-तलब कुश्त-ए-बेदाद का दामन !

"सरवर" ! ये मुझे फ़ख़्र है इल्जाम-ए-ख़ुदी से
है पाक मिरी फ़ितरत-ए-आज़ाद का दामन



ग़ज़ल 83 : जिगर की,दिल की,निगाहों की..

जिगर की,दिल की,निगाहों की,जिस्म-ओ-जाँ की ख़बर
रख़्ख़ूँ तो रख़्ख़ूँ मैं आख़िर कहाँ कहाँ की ख़बर ?

क़फ़स नसीब हूँ ,क्यों कर हो आशियाँ की ख़बर ?
भला ज़मीं को भी होती है आस्माँ की ख़बर ?

मैं अपने पास से गुज़रा तो यह हुआ महसूस
कि कारवाँ को नहीं गर्द-ए-कारवाँ की ख़बर !

जुनूँ ने वाक़िफ़-ए-इस्लाम कर दिया वरना
किसे थी फ़ुर्सत-ए-सज्दा,किसे अज़ाँ की ख़बर?

ख़ुदा को भूल गया मैं पये खु़द आगही
न इस जहाँ की ख़बर है ,न उस जहाँ की ख़बर!

जो हो सके तो कहो तूर-ए-इश्क़-सामां की
जहाँ पे होश उड़े थे मिरे ,वहाँ की ख़बर !

ख़िज़ाँ है गुलशन-ए-हस्ती में ख़ुद से मेहरूमी
बहार क्या है? इसी क़र्या-ए-अमाँ की ख़बर!

ये सर बुरीदा तमन्ना ,ये ख़ून ख़ून उम्मीद
सदा ब सहरा है इक ,एक इम्तहाँ की ख़बर !

वो साअत-ए-गुजराँ हो कि लम्हा-ए-मौजूद
तमाम हालत-ए-यक-उम्र-ए-रायगाँ की ख़बर

जिसे भी देखिये था मह्व-ए-बज़्म आराई
किसी को कब रही "सरवर" से नुक़्ता-दां.की ख़बर?





ग़ज़ल 84 : इलाही क्यों नहीं जाता है…

इलाही क्यों नहीं जाता ये मेरे जी का ग़म ?
किसी की याद,किसी का जुनूँ ,किसी का ग़म !

करूँ तो क्या करूँ मैं तेरी कज-रवी का ग़म
तुझे ज़रा भी नही मेरी बे-कसी का ग़म !

दलील-ए-राह भी, मंज़िल भी और जरस भी यही
अजीब चीज़ है यारो ये ज़िन्दगी का ग़म !

‘ हम ऐसे मह्व-ए-तमाशा थे ज़ात में अपनी
मिला ना वक़्त कि होता हमें खु़दी का ग़म

हज़ार मरहले इक राह-ए-ज़ीस्त में आए
कभी तो ग़म से ख़ुशी थी कभी ख़ुशी का ग़म !

ये सुब्ह-ओ-शाम की ज़ेहमत !अरे मआज़-अल्लाह!
करूँ न शिकवा अगर हो कभी कभी का ग़म

ये किसने कर दिया सूद-ओ-ज़ियां से बेगाना ?
न दोस्ती की ख़लिश है न दुश्मनी का ग़म

फ़राज़-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा? ला-इलाह-इल-लल्लाह !
यही कि आदमी को हो तो आदमी का ग़म !

शऊर-ए-ज़ात ने वा कर दिया दर-ए-जानाँ
रही ख़ुदी की तमन्ना, न बेख़ुदी का ग़म

खु़दा-न-ख़्वास्ता "सरवर" तुझे तबाह करे
तलाश-ए-ज़ब्त-ओ-सुकूँ में ख़ुद-आगही का ग़म !




ग़ज़ल 85 : सूरत-ए-ज़ख़्म-ए-दिल…

सूरत-ए-ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-दर्द-ए-जिगर आता है
वो मिरे पास ब-अन्दाज़-ए-दिगर आता है !

दिल सर-ए-बज़्म-ए-खु़दी ख़ाक-ब-सर आता है!
सुब्ह का भूला हुआ शाम को घर आता है !

ये बता दे वो तिरी याद का झोंका तो नहीं ?
गुल-बदामाँ जो सर-ए-शाम-ओ-सहर आता है

ज़िन्दगी बीत गई शिकवा-ए-हिज्राँ करते
देखिए कब हमें जीने का हुनर आता है !

सुब्ह से दिल को ये धड़का सा लगा रहता है
नामाबर देखिये क्या ले के ख़बर आता है

मंज़िल-ए-ग़म में मुझे इतने हुए हैं धोखे
तुझ से अब आंख मिलाते हुए डर आता है

बेख़ुदी बन गई तम्हीद खु़द-आगाही के !
एक मुद्दत में ये अन्दाज़-ए-नज़र आता है !

"सरवर" इतना भी तू हालात से मायूस न हो
आते आते ही दुआओं में असर आता है !



ग़ज़ल 86 : कोई तुम सा हो…..

कोई तुम सा हो कज-अदा न कभू !
एक वादा किया वफ़ा न कभू !

ज़ख़्म-ए-दिल,ज़ख़्म-ए-जान,ज़ख़्म-ए-जिगर
लोहू ऐसा कहीं बहा न कभू !

एक दरिया-ए-दर्द-ए-बे-पायां
"इश्क़ की पाई इन्तिहा न कभू "!

कूचा कूचा गली गली देखा
आह ! अपना पता मिला न कभू !

सोचता कौन इन्तिहा की जब
रास ही आई इब्तिदा न कभू ?

तुझ को देखा तो यूँ हुआ महसूस
तुझ सा कोई कहीं मिला न कभू !

ऐसे खु़द आशना हुए हैं हम
याद आया हमें ख़ुदा न कभू !

हो न हो उस गली से आई है
ऐसी गुल-पाश थी सबा न कभू !

ज़िन्दगी की हज़ार राहों में
क्यों मिला कोई रास्ता न कभू ?

जैसा आजिज़ है आप का "सरवर"
ऐसा कोई हो बे-नवा न कभू !




ग़ज़ल 87 : मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ……

मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ गुनह्गार नहीं हूँ
मैं गर्दिश-ए-हिज्रां का सज़ावार नहीं हूँ

इक जाम में बहके मैं वो मयख़्वार नहीं हूँ
यह किसने कहा साहिब-ए-किरदार नहीं हूँ

वल्लाह ! कि दुनिया से मैं बेज़ार नहीं हूँ
बस ये है कि मैं उसका तलबगार नहीं हूँ

ख़ुद अपनी इनायात का मस्लूब हूँ ऐसा
शाइस्ता-ए-दाम-ए-रसन-ओ-दार नहीं हूँ

दीवाना हूँ ,ला-रैब हूँ दीवाना वलेकिन
ये बात ग़लत है कि मैं हुशियार नहीं हूँ

बे-बाल-ओ-परी मेरी ज़माने पे अयाँ है
वो हाल है मैं अपना भी ग़मख़्वार नहीं हूँ

ख़ुद से ही मेरी जंग है मैदान-ए-ख़ुदी में
औरों से तो मैं बर-सर-ए-पैकार नहीं हूँ

इक हर्फ़-ए-मुहब्बत हूँ ज़रा पढ़ के तो देखो
आसाँ नहीं तो ऐसा भी दुश्वार नहीं हूँ

मैं ख़ुद पे अयाँ हूँ सर-ए-हंगामा-ए-हस्ती
साये की तरह गुम पस-ए-दीवार नहीं हूँ

हूँ ख़ुद से भी आगाह ,ज़माने से भी आगाह
मोमिन हूँ प बेगाना-ए-ज़ुन्नार नहीं हूँ

अपनी ही हक़ीक़त से जो बेगाना हो "सरवर"
ऐसा तो मैं मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार नहीं हूँ

ग़ज़ल 88 : हमेशा आरज़ूओं पर….

हमेशा आरज़ूओं पर बसर की
कहानी है यह उम्र-ए-मुख़्तसर की

फ़ुग़ाँ सुनते रहे हम चश्म-ए-तर की
शब-ए-ग़म इस तरह हमने सहर की

दिगर-गूँ रंग-ए-बज़्म-ए-आशिक़ी है
पड़ी है आप को रक़्स-ए-शरर की

मआल-ए-बन्दगी ज़ाहिर था फिर भी
नमाज़-ए-इश्क़ अदा इक उम्र भर की

कोई हमदर्द है दुनिया में मेरा ?
ये बातें कर रहे हो तुम किधर की?

बजा है आप की ये पुर्सिश-ए-ग़म
मगर जब की ब-अन्दाज़-ए-दिगर की !

हमें तुझ से नहीं कोई शिकायत
ख़बर दीवार को ही कब है दर की?

नज़र आ जायेगा क़तरे में दरिया
ज़रूरत है मगर हुस्न-ए-नज़र की !

न कर दुनिया की तू "सरवर" शिकायत
मिरी जाँ बात है अपने ही घर की !







ग़ज़ल 89 : न मै सुब्ह का,न मैं शाम का….


न मै सुब्ह का,न मैं शाम का,न ज़मीं का हूँ,न ज़माँ का हूँ
कोई ये बता दे मुझे ज़रा कि मैं हूँ अगर तो कहाँ का हूँ ?

मैं क़तील-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल हूँ ,मै असीर-ए-ख़ौफ़-ए-मआल हूँ
मैं ही सैद हूँ,मैं ही जाल हूँ, न यकीं का हूँ ,न गुमाँ का हूँ !

न तो कोई मेरा वुजूद है , न ही कोई मेरा शुहूद है
मैं मिसाल-ए-साया-ए-दूद हूँ ,न यहाँ का हूँ ,न वहाँ का हूँ !

न निशान है कोई राह का, न ही संग-ए-मील का है पता
मुझे कोई देखे तो क्यों भला ,मैं ग़ुबार उम्र-ए-रवाँ का हूँ !

न मकाँ मिरा ,न मकीं मिरे ,न ही ये ज़मान-ए-ज़मीं मिरे
मुझे खुद ही अपना पता नहीं ,तो मैं कैसे कौन-ओ-मकाँ का हूँ ?

न सुबू मिरा ,न ही ख़ुम मिरा ,न ही मय मिरी ,न ही जाम-ए-मय
मिरी तिश्नगी ! मिरी तिश्नगी !मैं रहीन पीर-ए-मुग़ाँ का हूँ !

न अज़ाँ हूँ मस्जिद-ए-हुस्न की, न जरस हूँ सौमा-ए-इश्क़ की
मुझे सुन के कोई करेगा क्या ,कि मैं कर्ब ज़ख्म-ए-निहाँ का हूँ !

न मैं क़ील का,न मैं क़ाल का ,न मैं हिज्र का ,न विसाल का
मैं हूँ अक्स अपने ख़याल का ,मैं फ़रेब अपनी ही जाँ का हूँ

न ही नज़्म हूँ ,न ग़ज़ल हूँ मैं ,न ही दाद-ए-बज़्म-ए-हयात हूँ
न नक़ीब शे’र-ए-मलीह का , न मज़ाक हुस्न-ए-बयाँ का हूँ !

हमा बे-दलील मिरा सफ़र हमा बे-ख़रोश मिरा हज़र
हमा बे-निशाँ,हमा बे-हदफ़,मैं वो तीर टूटी कमाँ का हूँ !



ग़ज़ल 90 : ज़मीं बाक़ी है पहली सी….

ज़मीं बाक़ी है पहली सी ,न ही वो आस्माँ बाक़ी
तुम्हारे दिल में वो मेरी मुहब्बत अब कहाँ बाक़ी !

हमें काफ़ी है हुस्न-ओ-इश्क़ की ये जल्वा-सामानी
ख़ुदा रख़्ख़े तुम्हारी हसरत-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ बाक़ी !

ख़ुद अपनी राह का पत्थर था ,शिकवा क्या ज़माने से ?
ताअज्जुब क्या अगर मेरा नहीं नाम-ओ-निशाँ बाक़ी !

कहानी है तो इतनी है हमारी ज़िन्दगानी की
दलील-ए-कारवाँ मौहूम ,गर्द-ए-कारवाँ बाक़ी !

गुज़रगाह-ए-ख़याल-ए-यार था मेरा दिल-ए-मरहूम
मगर अब रह गई कहने को बस इक दास्ताँ बाक़ी !

रह-ए-उल्फ़त में चलते चलते ऐसा भी मक़ाम आया
रिवाज-ए-सज्दा बाक़ी था, न थी रस्म-ए-अज़ाँ बाक़ी

बहुत चाहा कि तेरी ज़ात में खो जाऊँ मैं लेकिन
मिरी ये तिश्ना-कामी! रह गया सोज़-ए-निहाँ बाक़ी !

ख़ुदा के वास्ते अब छोड़ ये इश्क़-ए-बुताँ "सरवर"
न जाने रह गई है किस क़दर उम्र-ए-रवाँ बाक़ी !


ग़ज़ल 91 : कुछ इस तरह से…

कुछ इस तरह से तसव्वुर में बे-हिजाब हुए
तमाम आलम-ए-हिज्राँ ख़्याल-ओ-ख़्वाब हुए

ख़ुद अपने हाथों सर-ए-बज़्म बे-नक़ाब हुए
हम आप अपने सवालात का जवाब हुए !

तमाश-ए-दम-ए-हस्ती फ़क़त फ़साना था
हुज़ूर-ए-कू-ए-ख़ुदी हम जो बारयाब हुए

दरीदा बन्द-ए-जिगर, तार-तार दामन-ए-दिल
हुए तो इश्क़ में इस तरह से ख़राब हुए

सुबू-ए-हुस्न-ए-तख़य्युल छलक छलक उठ्ठा
हरीम-ए-शौक़ में हम जब भी बारयाब हुए

हमें अना ने दिखाई कुछ ऐसी राह कि बस !
जो ख़ुद को सोचा तो हम ख़ूब आब-आब हुए !

हम ऐसे कब थे कि आज़ाद-ए-आरज़ू रहते
ग़म-ए-हयात हुए और बे-हिसाब हुए

शिकस्ता-हाल-ओ-परीशाँ तो यूँ भी थे "सरवर"
तुम्हारे ज़िक्र से कुछ और भी ख़राब हुए !

ग़ज़ल 92 : रसन ये क्यों है……

रसन ये क्यों है ,बताओ ये दार कैसा है?
ये इह्तिमाम सर-ए-कू-ए-यार कैसा है ?

तिरी जफ़ा पे मुझे ऐतिबार कैसा है ?
गुलों से राबिता -ए-नोक-ए-ख़ार कैसा है ?

कहाँ गए वो ज़माने ,वो ख़ल्वतें,वो लुत्फ़ ?
नज़र चुराना सर-ए-रहगुज़ार कैसा है ?

ख़्याल-ओ-फ़िक्र बग़ावत पे क्यों हैं आमादा?
मिरे वुजूद में ये इज़्तिरार कैसा है?

मैं अपनी ज़ात से बाहर हूँ राँदा-ए-दरगाह
फिर आख़िर उस का मुझे इन्तिज़ार कैसा है ?

सबा! बता ये ज़रा तू कहाँ से आई है?
ख़िज़ाँ में आज यह रंग-ए-बहार कैसा है?

जहाँ पे होश उड़े हैं ,वहाँ की कुछ तो कहो
हमारे बाद वो शहर-ए-निगार कैसा है ?

ख़लिश यही है पस-ए-लज़्ज़त-ए-ख़ुद-आगाही
मिरी ख़ुदी में निहाँ अक्स-ए-यार कैसा है ?

फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-हुस्न-ए-ख़ुलूस हूँ वरना
ख़िज़ाँ-गज़ीदा यक़ीन-ए-बहार कैसा है ?

वही ख़याल ,वही आरज़ू, वही हसरत
तुझे ये रोग दिल-ए-सौगवार कैसा है ?

कहाँ गया वो तिरा शौक़-ए-बज़्म-आराई?
तिरी ग़ज़ल का वो "सरवर" ! वकार कैसा है ?

ग़ज़ल 93: जफ़ायें देख लियाँ….

"जफ़ायें देख लियाँ , बे-वफ़ाईयाँ देखीं "
तिरे ग़ुरूर की सब बे-रिदाईयाँ देखीं

बुराईयों में भी तेरी भलाईयाँ देखीं
ख़ुदी का ध्यान किया ,ख़ुद-नुमाईयाँ देखीं !

जब आईयाँ तिरी यादें हमें शब-ए-हिज्राँ
ख़्याल-ओ-ख़्वाब की बे-दस्त-ओ-पाईयाँ देखीं

तनिक इधर भी कभू चश्म-ए-नाज़ से देखो
इक उम्र गुज़री की बस कज-अदाईयाँ देखीं

मियाँ ! कुछ अपने ताईं देख भाल तो लेते
ये क्या कि औरों में सारी बुराईयाँ देखीं

चले थे राह-ए-वफ़ा में जुदे-जुदे हम लेक !
ग़ुरूर-ए-इश्क़ की सब ख़स्त-पाईयाँ देखीं

कभू किसू ने सुनी हैं हमारियाँ साहिब ?
हमेशा सब ने हमीं में बुराईयाँ देखीं

कभू न आया तुझे आशिक़ी का ढब "सरवर"
कि जब भी देखीं तिरी ख़ुद-सिताईयाँ देखीं !


ग़ज़ल 94 : दिल ने किसी की….

दिल ने किसी की एक न मानी
"उफ् री मुहब्बत ,हाय जवानी"

ख़ुद ही करना,ख़ुद ही भरना
इश्क़ में है कितनी आसानी !

खोल न दे सब राज़ तुम्हारे
आईने की यह हैरानी !

उनके बदले बदले तेवर
ढंग नया है ,रीत पुरानी !

इश्क़ की मंज़िल?अल्लाह अल्लाह !
दरिया ,दरिया,पानी ,पानी !

पास-ए-वफ़ा है वरना हम भी
कहते सब से राम-कहानी

दिल के बदले दर्द लिया है
आप इसे कह लें नादानी !

जैसी करनी ,वैसी भरनी
और करो "सरवर" मन-मानी !



ग़ज़ल 95 : रुस्वा रुस्वा सारे ज़माने

रुस्वा रुस्वा सारे ज़माने
तेरे क़िस्से ,मेरे फ़साने!

कोई हमारा दर्द न जाने
कोई हमारी बात न माने!

दिल है, मैं हूँ ,बिसरी बातें
मिल बैठे हैं दो दीवाने !

जैसे कोई बात नहीं है
यूँ बैठे हो तुम अन्जाने !

इश्क़ से पहले सोचा होता
अब क्या बैठे हो पछताने?

दुख के मोती चुनता हूँ मैं
क़तरा क़तरा दाने दाने !

आँख से ओझल ,दिल से ओझल
अपने भी हैं अब बेगाने

दुनिया आनी जानी लेकिन
हम सब दुनिया के दीवाने

मुँह से निकली बात परायी
अब आये हो बात बनाने?

"सरवर" कुछ तो होश की लो तुम
ले बैठे क्या राग पुराने ?





ग़ज़ल 96 : बता ये जज़्ब-ए-बे-इख़्तियार….

बता ये जज़्ब-ए-बे-इख़्तियार क्या होगा ?
अगर वो हम से हुआ शर्मसार क्या होगा ?

मिरी वफ़ाओं को संग-ए-मज़ार क्या होगा ?
बहार जा चुकी ,ज़िक्र-ए-बहार क्या होगा ?

बुरा हो तेरा दिल-ए-बेक़रार ! क्या होगा ?
रहा न ख़ुद पे हमें इख़्तियार, क्या होगा?

न जाने कितनी बहारें गुज़र चुकीं इस पर
जुनूँ का फ़ैसला अब की बहार क्या होगा ?

ये चश्म-ए-नम ,ये ख़मोशी ,ये आह-ए-नीम-शबी
ज़ियादा इस से भला ज़िक्र-ए-यार क्या होगा?

अगर है सब्र-तलब सुब्ह-ए-आरज़ू इतनी
मैं डर रहा हूँ शब-ए-इन्तिज़ार क्या होगा?

तुम्हारा पास-ए-गिरेबां तो हमने देख लिया
मआल-ए-पैरहन-ए-तार-तार क्या होगा ?

रखा न दीन का उल्फ़त ने और न दुनिया का
कोई भी मुझ सा ग़रीब-उल-दयार क्या होगा?

इधर कशाइश-ए-उल्फ़त ,उधर ग़म-ए-दुनिया
दिल-ए-ग़रीब का अन्जाम-ए-कार क्या होगा ?

किसी को ग़म नही "सरवर" ! तिरा ज़माने में
अब इस से बढ़ के भला कोई ख़्वार क्या होगा?



ग़ज़ल 97 : शब-ए-ग़म आरज़ूओं की…

शब-ए-ग़म आरज़ूओं की फ़िरावानी नहीं जाती
दिल-ए-शोरीदा-खू की ख़ून-अफ़्शानी नहीं जाती !

न रोये इश्क़ के अन्जाम पर कोई ज़माने में
कि इस मंज़िल में अक़्ल-ओ-होश की मानी नहीं जाती !

जिधर भी देखिए ग़म और तमन्नाओं की यूरिश है
ख़ुदाया ! क्यों मता-ए-ग़म की अरज़ानी नहीं जाती ?

तकल्लुफ़ बर-तरफ़,कुछ तो सबब है ,माजरा क्या है?
हमारी ही तिरी महफ़िल में क्यों मानी नही जाती ?

चले आओ कि ख़ुद को देख लूँ ऐ दोस्त ! मैं तुम में
बड़ी मुद्दत से मेरी शक़्ल पहचानी नहीं जाती !

किए जाता हूँ सज्दे आस्तान-ए-इश्क़ पर हर दम
भला हो दिल का,मेरी ख़ू-ए-ईमानी नहीं जाती !

हमें हस्ती की इस जादूगरी ने मार रख़्ख़ा है
परेशानी जो जाती है तो हैरानी नहीं जाती !

ताअज्जुब से निगाह-ए-लुत्फ़ का मुँह तक रहा है दिल
नए इस रूप में ज़ालिम ये पहचानी नहीं जाती !

उठा करती है क़ल्ब-ए-नातवाँ में हूक जो अक्सर
वो पहचानी तो जाती है ,मगर जानी नहीं जाती

हुआ है रंज-ओ-ग़म से तंग तेरा क़ाफ़िया "सरवर"
ताअज्जुब है कि फिर भी ये ग़ज़ल-ख़्वानी नहीं जाती !




ग़ज़ल 98 : आप आए याद की….

आप आए याद की वो फ़ित्ना-सामानी गई
थी हमें दिन रात की जो इक परेशानी गई

अहल -ए-दिल उठ्ठे ,जुनूँ की चाक-दामानी गई
वाये-हसरत ! आरज़ूओं की ग़ज़ल-ख़्वानी गई

एतिबार-ए-हस्ती-ए-मौहूम इक अफ़्साना था
ग़ौर से खुद को जो देखा ,सारी हैरानी गई

उम्र भर हम आशना-ए-गुल,ख़िज़ाँ दीदा रहे
गुलशन-ए-हस्ती में अपनी क़द्र कब जानी गई?

आह ! ये मौज-ए-हवादिस की करम-फ़रमाईयाँ !
हम से अपनी शक्ल भी मुश्किल से पहचानी गई

किसको फ़ुर्सत है कि सोचे इम्तिहान-ए-देह्र में
ख़ू-ए-इन्सानी गई कि रूह-ए-इन्सानी गई ?

मुझको क्या होगा भला हासिल बयान-ए-हाल से ?
आप की महफ़िल में पहले कब मेरी मानी गई ?

जब से वो आये हैं ,तू बुत की तरह ख़ामोश है
ये बता "सरवर"! कहाँ तेरी हमा-दानी गई ?

ग़ज़ल 99 : मिरा ज़ौक़-ए-मुहब्बत….

मिरा ज़ौक़-ए-मुहब्बत देखिए ,क्या गुल खिलाता है
ख़ुशी पर डूबता है दिल ,ग़मों पर मुस्कराता है

हरीम-ए-नाज़ है ये ! एक आता एक जाता है
तमाशा नित-नया शाम-ओ-सहर कोई दिखाता है !

गिला कैसा ,शिकायत किस की और कैसी ये बे-कैफ़ी?
यही होता है मेरी जाँ !किसी पर दिल जो आता है

रह-ए-उल्फ़त का हर ज़र्रा मिरा हमराज़-ओ-मूनिस है
फ़साना कोई कहता है ,ग़ज़ल कोई सुनाता है !

तुम्हारे बाद जो बीता ज़माना ,ज़िक्र क्या उसका
तुम्हारे साथ जो गुज़रा ज़माना ,याद आता है !

असीर-ए-ज़िन्दगानी हूँ गिरिफ़्तार-ए-ज़माना हूँ
मिरा हर तार-ए-हस्ती इक नया नौहा सुनाता है

दर-ओ-दीवार में ऐसी बसी है बू-ए-जानाना
मैं जितना भूलना चाहूँ ,वो उतना याद आता है

ज़माना-साज़ तू होता अगर "सरवर" तो अच्छा था
मज़ाक़-ए-सादा तेरा कब किसी को रास आता है !


ग़ज़ल 100: उम्र भर रोया किए….

उम्र भर रोया किए ,ना-कामियाँ देखा किए
कैसी कैसी इश्क़ में रुस्वाईयाँ देखा किए !

अपनी मजबूरी, तिरी रानाईयाँ देखा किए
हम ज़मीं वाले फ़राज़-ए-आसमाँ देखा किए

एक दुनिया मुन्तज़िर थी इन्क़लाब-ए-देह्र की
एक हम ही थे तिरी अंगड़ाईयाँ देखा किए

अश्क-ए-ग़म टपका किए बेचारगी से और हम
दामन-ए-उम्मीद की नै-रंगियाँ देखा किए

ये नहीं देखा किसी ने रंज-ओ-ग़म है किस लिए
अहल-ए-दुनिया सिर्फ़ अन्दाज़-ए-फ़ुग़ाँ देखा किए

लोग हालत को हमारी देख कर हँसते रहे
और हम तेरी तरफ़ ऐ जान-ए-जाँ देखा !किए

मोजिज़ा है ये कि है दीवानगी हम क्या कहें!
वो नज़र आये वहीं पर हम जहाँ देखा किए

कोई दिन जाता है महफ़िल में बिखर जाऊँगा मैं
आप गर मेरी तरफ़ यूँ ही वहाँ देखा किए

देखने की चीज़ हैं अहल-ए-ख़िरद की काविशें
इश्क़ में ये ख़ुश-गुमाँ सूद-ओ-ज़ियाँ देखा किए !

शे’र में "सरवर" के हाल-ए-दर्द-ए-दिल था और लोग
बन्दिशें परखा किए ,तर्ज़-ए-बयाँ देखा किए


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